Home ज्योतिष शनिदेव की साढ़े-साती का श्रीकृष्ण पर क्या प्रभाव पड़ा?

शनिदेव की साढ़े-साती का श्रीकृष्ण पर क्या प्रभाव पड़ा?

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भगवान श्री कृष्ण ने दैविक वास्तुकार ‘त्वाश्त्री’ द्वारा स्वर्ण की नगरी द्वारका का निर्माण करवाया था। द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण अपनी सोलह हजार स्त्रियों के साथ निवास करते थे। उनकी हर एक पत्नी का एक अपना अति सुंदर महल था। अपनी पत्नियों को प्रसन्न करने के लिए श्री कृष्ण ने स्वर्ग से परिजातक वृक्ष को भी द्वारका में अपने महल में स्थापित करवा लिया था। 

द्वारका में उग्र नाम का एक यादव रहता था। उसके दो पुत्र थे सत्रजीत और प्रसेनजीत। सत्रजीत भगवान सूर्य का बहुत बड़ा उपासक था और दिन-रात समुद्र के तट पर उनकी पूजा में लगा रहता था। सत्रजीत की निष्ठा एवं तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य ने उसे दर्शन दिए और वरदान मांगने के लिए कहा। सत्रजीत ने कहा कि मैं एक निर्धन मनुष्य हूं यदि आप मुझसे खुश है तो मुझे बहुत सारे धन का आशीर्वाद दीजिए। यह सुनकर सूर्य भगवान ने अपने गले से ‘स्यमन्तक’ तक नाम की मणि निकालकर सत्यजीत को दे दी और कहा प्रतिदिन यह मणि तुम्हें आठ गाड़ियों भर सोना (स्वर्ण) प्रदान करेगी। लेकिन तुम्हें इसे पहनने से पूर्व हमेशा स्नान करना होगा तथा नित्य पूजा अर्चना संपूर्ण करनी होगी। क्योंकि यदि कोई भी जो पूरी तरह साफ सुथरा ना हो इस मणि को पहन ले तो उसका सर्वनाश हो जाता है। यह कहकर भगवान् सूर्य अंतर्ध्यान हो गए।

सत्रजीत ‘स्यमन्तक’ नाम की मणि पहनकर द्वारका में आया तथा उसके आसपास से सूर्य की किरणों की भांति अत्यधिक तेज एवं प्रकाश निकल रहा था। द्वारका की प्रजा भी जान गई कि सत्रजीत को भगवान सूर्य का आशीर्वाद मिल चुका है। सत्रजीत श्री कृष्ण के महल में पहुंचा। इसी समय भगवान श्री कृष्ण की कुंडली में शनि की साढ़ेसाती का समय शुरू हुआ इसके परिणाम स्वरूप श्री कृष्ण के मन में सुमन तक मणि को प्राप्त करने की भावना जाग उठी। उन्होंने सत्रजीत को अपने दरबार में बुलाकर कहा कि यह बेशकीमती मणि यदि तुम अपने पास रखोगे तो इसमें खतरा है। जब लोगों को पता चलेगा कि यह मणि रोज आठ गाड़ियां भर के स्वर्ण दिला सकती है तो वह इसे चुरा लेना चाहेंगे। इसमें तुम्हारा नुकसान भी हो सकता है। तुम यह मणि मुझे क्यों नहीं दे देते? मैं इसका ध्यान रखूंगा। तुम रोज मेरे पास आकर अपना स्वर्ण ले जा सकते हो।

यह सब सुनकर सत्रजीत को लगा कि भगवान श्री कृष्ण मणि को हमेशा के लिए लेना चाहते हैं। इस भाव से उसने कहा कि मेरे भाई प्रसनजीत ने मुझसे पहले ही इस मांग लिया है और मुझे विश्वास है कि वह इसका भी ध्यान रख सकता है। श्री कृष्ण जी ने कहा यदि ऐसा है तो ठीक है। उनके दरबार से निकलते ही सत्रजीत अपने भाई प्रसेनजीत के घर गया और कहा नहा धोकर पूजा पाठ कर लो। फिर ‘स्यमन्तक’ मणि को गले में पहन लेने के लिए कहा जिसका प्रसेनजीत ने पालन किया। मणि द्वारा स्वर्ण की आपूर्ति होने लगी। प्रतिदिन सत्रजीत आता और स्वर्ण ले कर चला जाता।

Sri Krishna and Shani dev sade sati

कुछ दिन बाद प्रसनजीत शिकार करने के लिए जंगल गया। वहां जब वह अशुद्ध अवस्था में था तभी एक शेर ने उसे मार दिया और मणि हथिया ली। मणि की आभा से प्रभावित होकर जामवंत नाम के भालू ने शेर का पीछा किया उसका शिकार किया और मणि लेकर अपने घर चला गया। जब प्रसेनजीत के अन्य साथी द्वारका वापस आए और सत्रजीत को बताया कि जंगल में क्या हुआ तो सत्यजीत इस निर्णय पर पहुंचा कि श्रीकृष्ण ने प्रसंजित के प्राण हरण करने का खेल रचा है। उसने अपने मित्रों से अपना संदेह व्यक्त किया और धीरे धीरे पूरी द्वारका में यह बात फैल गई कि भगवान श्री कृष्ण ने प्रसेनजीत को मरवाने में मुख्य भूमिका निभाई है। जब श्री कृष्ण दूसरे देश से वापस आए और द्वारका नगरी में घुसे तो उन्होंने देखा कि हर तरफ लोग उनसे भयभीत हैं। बच्चे चीख रहे थे कि कृष्ण से दूर रहो जो मणि प्राप्त करने के लिए बच्चों की भी हत्या करवा सकते हैं। 

श्रीकृष्ण एक पल में ही सारा वृत्तांत समझ गए। उन्होंने कुछ लोगों को इकट्ठा किया और प्रसेनजीत को ढूंढने जंगल जा पहुंचे। वहां उन्होंने प्रसेनजीत और उसके घोड़े को मृत पाया और शेर के पद चिन्हों का पीछा करते-करते शेर के मृत शरीर तक भी पहुंच गए। वहां से भालू के पैरों के निशान के पीछे पीछे एक बहुत बड़ी गुफा के मुंह पर पहुंचे। उन्होंने अपने साथियों को गुफा के द्वार पर ही रुकने के लिए कहा और खुद गुफा के अंदर चले गए।

गुफा सैकड़ों मील गहरी थी और गुफा की दीवारों में रामायण से प्रभावित तस्वीरें बनी हुई थी। आगे बढ़ते बढ़ते श्री कृष्ण एक बहुत बड़े हॉल में पहुंचे जहां बीचोंबीच एक पालने में जामवंत का पुत्र तक मणि के साथ खेल रहा था। जामवंत की अत्यधिक सुंदर पुत्री जामवंती अपने भाई को झूला झूला रही थी। हॉल में श्री कृष्ण के आगमन से हुई रोशनी का आभास करके जामवंती ने बिना मुड़े ही कहा आप जो भी है चले जाए वरना मेरे पिता आपको मृत्यु की शैया में सुला देंगे। भगवान श्री कृष्ण जामवंती की बात सुनकर मुस्कुराए और जोर से शंखनाद किया। शंख की गर्जना सुनकर जामवंत उठ गया और भगवान श्री कृष्ण और जामवंत के बीच युद्ध आरंभ हुआ।

गुफा के द्वार के बाहर सात दिन तक श्री कृष्ण के साथ आए द्वारका वासियों ने इंतजार किया फिर वह उदास होकर द्वारका वापस लौट गए। उन्हें लगा कि गुफा के अंदर अवश्य किसी ने श्री कृष्ण का वध कर दिया है। श्री कृष्ण और जामवंत के बीच का युद्ध 28 दिनों तक चला। जब दोनों को लगा कि वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुके हैं तब श्री कृष्ण ने जामवंत को अपना विराट ‘महाविष्णु’ रूप दिखाया जिससे जामवंत जान सका कि श्री कृष्ण भगवान विष्णु के ही अवतार  हैं। अब जामवंत यह समझ गया कि भगवान श्री कृष्ण और श्रीराम में कोई भी अंतर नहीं है। जामवंत ने श्री कृष्ण से कहा, “मैं आपके बल से अति प्रसन्न हूं। जब शेर ने प्रसेनजीत को मारा तो मुझे शेर को मार कर मणि लेना ठीक लगा अब मैं इस मालिकों को समर्पित करता हूं साथ ही मैं अपनी पुत्री भी आपको समर्पित करता हूं।”

श्रीकृष्ण ने ‘स्यमन्तक’ मणि और जामवंती को अपना लिया और वापस द्वारका आ गए। द्वारका के लोगों ने भगवान श्री कृष्ण का भव्य स्वागत किया जब श्री कृष्ण सत्रजीत से मिले उन्होंने स्यमन्तक’ मणि उसे लौटा दी और सारा विवरण बताया। सत्रजीत सब कुछ सुनकर उनके चरणों में गिर गया और उसे क्षमा मांगी। सत्यजीत ने अपनी पुत्री सत्यभामा श्री कृष्ण को पत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए सौंप दी। सत्यजीत ने उन्हें मणि भी सौंप दी. श्री कृष्ण ने सत्यभामा को प्रसन्नता पूर्वक अपना लिया किंतु मणि सत्रजीत को स्वयं ही रखने के लिए कहा।

द्वारका की प्रजा श्री कृष्ण पर संदेह करने के लिए शर्मिंदा थी। भगवान श्री कृष्ण उन सब को माफ कर दिया। पर अभी भी इस कहानी में कुछ शेष था। सत्रजीत ने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह ‘शतधन्व’ व नाम के यादव से पहले ही निश्चित कर रखा था। जब शतधन्व को सत्यभामा और श्री कृष्ण के विवाह के बारे में पता लगा तो वह अत्यंत क्रोधित हो गया। उसी दौरान लाख के महल में पांडवों के जल जाने की खबर आई तो श्रीकृष्ण वहां शोक मनाने गए। इस मौके का फायदा उठाकर शतधन्व के मित्र अक्रूर और कृतवर्मा ने एक साजिश की। उन्होंने शतधन्व को मणि चुराने के लिए उकसाया। उनकी बात मान कर शतधन्व मणि चुराने गया तथा सत्रजीत का वध किया एवं स्यमन्तक मणि चुरा ली.

श्री कृष्ण को इस बात का पता लगा कि शतधन्व ने मणि अक्रूर को दे दी और खुद द्वारका से भाग गया ताकि अपने प्राण बचा सके। श्री कृष्ण ने अपने बड़े भाई बलराम के साथ मिलकर शतधन्व को ढूंढ निकाला और उसका वध किया। अब मणि लेकर अक्रूर के भागने का मौका था। फिर से द्वारका में यह भ्रांति फैल चुकी थी कि श्री कृष्ण ने ही इस मणि को अक्रूर को सौंपा है। कुछ लोग यह भी मान रहे थे कि श्री कृष्ण ने ही शतधन्व और सत्रजीत का वध करवाया है। श्री कृष्ण ने प्रजा के मन से संदेह हटाने के लिए अक्रूर को बुलाया और उसे प्रजा को सच बताने के लिए कहा। उसने श्री कृष्ण की बात मानकर प्रजा को सच बताया तथा अपने प्राणों की भिक्षा मांगी। फिर भगवान श्री कृष्ण ने अक्रूर को सांत्वना दी और उसे स्यमन्तक मणि अपने पास ही रख लेने के लिए कहा। यही वह समय था जब शनि की साढ़ेसाती के प्रभाव से भगवान श्री कृष्ण मुक्त हो गए। इसके बाद उनकी प्रजा ने कभी भी उन पर संदेह नहीं किया।

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