विवाह के प्रकार
पुराने ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार कुल आठ प्रकार के विवाह होते हैं जिनके नाम निम्नलिखित हैं –
ब्रह्मा विवाह
इस विवाह के अंतर्गत दूल्हे को घर पर निमंत्रित करके दुल्हन को सुंदर आभूषणों द्वारा सुसज्जित करके, नव वस्त्र पहनाकर शुभ मुहूर्त में समारोह आयोजित करके वर पक्ष को सौंपी जाती है। इस विवाह के कारण उत्पन्न संतान अपनी 21 पीढ़ियों के माता-पिता का शुद्धिकरण करती है।
देव विवाह
इस विवाह के अनुसार विवाह योग्य कन्या को यज्ञ द्वारा पुजारी को सौंपा जाता है। यह देव विवाह कहलाता है। इस विवाह से उत्पन्न पुत्र अपनी 14 पीढ़ियों के माता-पिता के शुद्धीकरण का कारण बनता है। जिस लड़की का विवाह इस प्रथा के द्वारा होता है वह देवदासी कहलाती है।
आर्य विवाह
इस विवाह के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति दो गाय अथवा उनके बराबर की धनराशि लेकर, अपनी पुत्री को एक स्वस्थ लड़के से विवाह करने हेतु देता है। इस विवाह के से उत्पन्न पुत्र अपनी छह पीढ़ियों के माता-पिता का उद्धार करता है।
प्रजापति विवाह
“धर्म के मार्ग का अनुसरण करना” जो भी विवाह इस प्रथा के अनुसार होता है उसमें कन्या को यह सीख देते हुए उसका विवाह होता है इस विवाह से उत्पन्न पुत्र अपनी 6 पीढ़ियों के माता-पिता के शुद्धिकरण का कारण बनता है।
असुर विवाह
इस विवाह में धनराशि लेने के पश्चात विवाह हेतु कन्या को दिया जाता है।
गंधर्व विवाह
इस विवाह के अनुसार एक लड़का और एक लड़की, जो एक दूसरे से प्रेम करते हैं, वह एक दूसरे से विवाह कर लेते हैं।
राक्षस विवाह
इस विवाह के अनुसार युद्ध के पश्चात, लड़की का अपहरण करके उससे विवाह किया जाता है।
पिशाच विवाह
इस विवाह के अनुसार लड़की को धोखा देने अथवा उसका अपहरण करने के पश्चात उस से विवाह किया जाता है।
विवाह से पूर्व जांच करने योग्य दोष
नीचे कुल इक्कीस दोष लिखें हुएं हैं, जिनकी जांच विवाह से पूर्व करना अति आवश्यक होता है।
- पंचांग शुद्धि – वार (दिन) को ना गिनना।
- उदयास्त शुद्धि – लग्न, नवमांश लग्न के स्वामी का अधिक शक्तिशाली और लाभकारी होना।
- मासांत (सौर माह का अंत) – 16 घाटी शुरुआत की और अंत की 16 घंटे प्रत्येक सूर्य संक्रांति (राशि परिवर्तन ) की वर्जित होती है।
- शाद वरगास -6 डिविजनल चार्ट के अनुसार यदि लाभकारी ग्रहों के देवता 4 वरगास लग्न से अधिक हो तो विवाह शुभ होता है। यदि यह संख्या 4 वरगास लग्न से कम हो विवाह अशुभ होता है।
- मंगल ग्रह यदि आठवें घर में हो तो, यह विवाह ना करना उचित होगा।
- त्रिविधा गण्डान्त – यदि राशि, लग्न एवं नक्षत्र, गण्डान्त में हों, तो यह विवाह ना करना उचित होगा।
- शुक्र यदि छठें घर में हो तो यह विवाह ना करना उचित होगा।
- करतारी – यदि विवाह लग्न अथवा गोचर चंद्रमा का 12 वें घर में सीधा बुरा प्रभाव हो और दूसरे घर में प्रतिगामी प्रभाव हो, तो ऐसे विवाह को ना करना बेहतर होगा।
- गोचर चंद्रमा यदि जन्म चंद्रमा से छठे अथवा आठवें स्थान पर हो या फिर मेल्फिक के साथ संयुक्त हो, तो ऐसे विवाह को ना करना बेहतर होगा।
- विवाह लग्न आठवें घर में नहीं होना चाहिए।
- विष घटी
- दूर मुहूर्त
- वारा दोष
- क्रांति समय
- ग्रहण तथा उत्पात नक्षत्र
- खरजोड़ – विष्कुंभ, अतिगण्डा, शूलगंडा, व्याघ्टा, वज्र, व्यातिपत, परिघ, वैधृति; ऐसे योगों में विवाह नहीं करना चाहिए।
- क्रूर ग्रह व नक्षत्र
- पाप युक्त नक्षत्र
- क्रूर नवमांश
- महा पता
- वैधृति
विवाह लग्न का चुनाव करने के लिए इन दोषों का जटिल अन्वेषण करना अत्यंत आवश्यक है यह दोष इस प्रकार हैंलता, पत, युति, वेधा, जमित्रा, बुद्ध पंचक, एकर्गला, उपागृह, क्रांति समय एवं दग्ध तिथि। जोड़े के वैवाहिक जीवन के कल्याण हेतु इनका अन्वेषण करना अत्यंत आवश्यक होता है या सुनिश्चित करना चाहिए कि कुंडली में यह दोष नहीं है।
पत | विवाह के नक्षत्र यदि इनमें से किसी युग के अंत में पड़े तो वह विवाह नहीं करना चाहिए। हर्षना, वैधृति, साध्या, व्यातिपत्, गण्डा तथा शूल योग। |
युति | चंद्रमा के साथ कोई अन्य ग्रह विशेषकर शुक्र नहीं होना चाहिए। यदि चंद्रमा है अथवा उच्च स्थिति में है तो यह दोष नहीं लगता। यदि चंद्रमा बृहस्पति के द्वारा छादित है तो भी यह दोष नहीं लगता। |
वेधा | वेधा चक्र पहले दिया जा चुका है। अतः कोई भी नक्षत्र वेधा नहीं होना चाहिए। |
जमित्रा | कोई भी मेल्फिकग्रह, विवाह नक्षत्र से 14 नक्षत्र में नहीं होना चाहिए। |
मृत्यु पंचक | जैसा कि कहा जा चुका है कि (कुंभ राशि से मीन राशि) के चंद्रमा का धनिष्ठा नक्षत्र से रेवती नक्षत्र तक बुद्ध पंचक अथवा वन दोष कहलाता है। |
शुक्ल प्रतिपदा से वर्तमान तिथि + लग्न राशि ÷ 9 = (यदि शेषफल बचे ….)
- 1 = मृत्यु,
- 2 = अग्नि,
- 4 = राज्य,
- 6 = चोर,
- 8 = रोग
पंचक के विषय में पहले भी बताया जा चुका है।
- एकर्गला दोष – एकर्गला दोष के विषय में पहले भी बताया जा चुका है।
- क्रांति समय – सूर्य और चंद्रमा एक ही क्रांति में स्थित होना।
- उपागृह – चंद्रमा नक्षत्र से सूर्य नक्षत्र तक की गिनती करना, यदि अंक 5, 7, 8, 10, 14, 15, 18, 19, 21, 22, 23, 24 एवं 25 आए तो यह उपाग्रह दोष कहलाता है।
- दग्ध तिथि –
राशि | सूर्य संक्रांति | तिथि | पक्ष |
मेष | 1 | 6 | शुक्ल पक्ष |
वृष | 2 | 4 | कृष्ण पक्ष |
मिथुन | 3 | 8 | शुक्ल पक्ष |
कर्क | 4 | 6 | कृष्ण पक्ष |
सिंह | 5 | 10 | शुक्ल पक्ष |
कन्या | 6 | 8 | कृष्ण पक्ष |
तुला | 7 | 12 | शुक्ल पक्ष |
वृश्चिक | 8 | 10 | कृष्ण पक्ष |
धनु | 9 | 2 | शुक्ल पक्ष |
मकर | 10 | 12 | कृष्ण पक्ष |
कुंभ | 11 | 4 | शुक्ल पक्ष |
मीन | 12 | 2 | कृष्ण पक्ष |
न्यूनतम 5 दोषियों को खारिज कर देना चाहिए। 3, 4, 6, 8 और 10; इन्हें छोड़ देना चाहिए। सबसे अच्छा होगा यदि 10 दोषों को छोड़ दिया जाए। यदि बहुत आवश्यकता हो तो छठे दोष के साथ समझौता किया जा सकता है।
विवाह मुहूर्त
तिथि | कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा शुक्ल पक्ष की द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी एवं त्रयोदशी (2, 3, 5, 7, 10, 11 और 13) शुभ मानी गई हैं। सामान्यता विवाह मुहूर्त का चुनाव करते समय तिथि तथा दिन को उतनी महत्ता नहीं दी जाती, जितनी की परिहार को दी जाती है। |
वार (दिन) – शुभ दिन | सोमवार, बुधवार, गुरुवार तथा शुक्रवार |
अशुभ दिन | रविवार, मंगलवार एवं शनिवार |
नक्षत्र | रोहिणी नक्षत्र, मृगशिरा नक्षत्र, मघा नक्षत्र, सभी 3 उत्तरा नक्षत्र, हस्त नक्षत्र, स्वाति नक्षत्र, अनुराधा नक्षत्र, मूला नक्षत्र तथा रेवती नक्षत्र। मघा नक्षत्र के पहले पद मूल नक्षत्र के पहले पद तथा रेवती नक्षत्र का चौथा पद नहीं इस्तेमाल किया जाना चाहिए। |
योग | अशुभ योग अति गण्डा, गण्डा, शूल,व्याघट, व्यातिपत्, परिघा, अंद्रा, एवं वैधृति इन सभी का त्याग करना चाहिए। |
लग्न शुभ | 3, 6 और 7 |
मध्यम | 2, 4, 9 और 12 |
- यदि आप चाहते हैं कि आपका विवाह लंबे समय तक चले, तो शुभ स्थिर लग्न को लें।
- जन्म राशि अथवा लग्न से 3, 6, 10 एवं 11 लग्न अच्छे होते हैं।
- या तो दूल्हे अथवा दुल्हन के 4, 8 तथा 12 लग्न, जन्म लग्न से अथवा चंद्र लग्न से अशुभ माने जाते हैं। आठवें ग्रह को का दोष सबसे बुरा होता है, चाहे उसमें शुभ फल देने वाला ग्रह ही क्यों ना बैठा हो।
उपचार
- यदि आठवीं राशि लग्न से 2 4 6 8 10 और 12 में स्थान में हो तो यह गलत नहीं होती।
- यदि आठवें ग्रह का स्वामी केंद्र में स्थित हो या सही जगह स्थिति में हो तो यह दोष को हटा देता है।
- यदि अष्टमेश शुभ नवमांश में हो या स्वयं अथवा मित्र के नवमांश में स्थित हो तो यह अष्टम लग्न के दोष को खत्म कर देता है।
नोट – यदि
ग्रह | लग्न में | दोष खत्म हो जाते है |
बुध | 1, 4, 5, 9, 10 | 100 |
शुक्र | 1, 4, 5, 9, 10 | 200 |
बृहस्पति | 1, 4, 5, 9, 10 | 1,00,000 |
- यदि लग्न शुद्धि, चंद्र शुद्धि तथा ऊपर बताए गए स्थानों में बुध, बृहस्पति तथा शुक्र स्थित हो तो यह विवाह के लिए अत्यंत शुभ होता है।
- यदि लग्न राशि (चंद्रमा के गोचर में नटल चंद्रमा के समान हो तो) या लग्न जन्म के समय एक ही हो तो विवाह को अशुभ मानते हैं।
- परंतु, यदि लग्न के स्वामी और राशि एक हों या जन्म चार्ट के अनुसार मित्र हो तो यह दोष नहीं लगता।
विवाह में करतारी दोष का होना
यदि एकमेल्फिक रेट्रोग्रेडग्रह दूसरे घर में तथा उसके सीधे बारहवें घर में एक मेल्फिक ग्रह हो तो यह करतारी दोष उत्पन्न करता है। विवाह लग्न में इस दोष या दो मेल्फिक का होना अच्छा नहीं माना जाता।
- चंद्रमा यदि पाप करतारी में हो तो अशुभ फल देता है, अन्यथा यह बुरा नहीं होता।
- पांचवें, सातवें तथा नौवें भाव को पाप करतारी से मुक्त होना चाहिए।
- यदि विवाह लग्न में चंद्रमा हो तो यह निम्नलिखित फल देता है।
- सूर्य – गरीबी
- मंगल – मृत्यु
- बुध – शुभ
- बृहस्पति – आनंद
- शुक्र – शत्रुता
- शनि – त्याग, सन्यास
- राहु – अशुभ फल
उपचार – जो ऊपर (3) में बताए गए हैं।
लग्न में अलग-अलग ग्रहों की स्थिति
नीचे दिए गए ग्रहों की स्थिति बाधक है, अतः इन्हें त्यागना ही उचित होगा।
ग्रह | भाव |
लग्नेश | 6, 8, 12 |
सूर्य | 1, 7 |
चंद्रमा | 1, 6, 7, 8, 12 |
मंगल | 1, 7, 8, 10 |
बुध | 7, 8 |
बृहस्पति | 7, 8 |
शुक्र | 3, 6, 7, 8 |
शनि | 1, 7, 12 |
राहु | 1, 7 |
सातवें घर में कोई भी ग्रह नहीं होना चाहिए, चाहे वह लाभ देने वाला ग्रह ही क्यों ना हो। बुध, बृहस्पति तथा शुक्र को पहले, चौथे, पांचवें तथा दसवें भाव में अत्यंत शुभ माना जाता है। वरगोतम नवमांश को छोड़कर, विवाह लग्न के अंतिम नवमांश में बारहवें भाव में शनि, दसवें भाव में मंगल तथा तीसरे भाव में चंद्रमा या शुक्र को नहीं होना चाहिए।
वरगोतम लग्न में चंद्र राशि के स्वामी तथा मंगल को आठवें भाव में नहीं होना चाहिए। चंद्रमा से, सातवें घर में बुध, बृहस्पति तथा शुक्र सौभाग्य तथा पुत्र का आशीर्वाद देते हैं। यदि बृहस्पति केंद्र अथवा त्रिकोण में स्थित हो, तो यह समस्त दोषों का नाश कर देता है। बुध, शुक्र, वरगोतम लग्न, वरगोतम चंद्र सभी दोषों का नाश करते हैं। लग्नेश और लग्न नवमांश के स्वामी यदि पहले, चौथे, दसवें अथवा ग्यारहवें भाव में स्थित हो तो यह समस्त दोषों को खत्म कर देते हैं। यदि मुहूर्त लग्न 20 अंक शक्तिशाली हो, तो उसके साथ के ग्रहों की शक्ति निम्नलिखित प्रकार से होगी –
- लग्न – 2
- शुक्र – 2
- बुध – 2
- चंद्र – 5
- सूर्य – 3
- बृहस्पति – 3
- शनि – 1
- राहु – 1
- केतु – 1
नवमांश
- स्थाई, लग्न बुध स्वयं के घर में, बृहस्पति वरगोतम में तथा सूर्य उच्च का होता है। कन्यादान, शुभ नवमांश में ही करना चाहिए। नवमांश समस्त अशुभता को जो चर लग्न में होती है, हटा देता है। जिसके कारण वैवाहिक जीवन सुखमय बितता है।
- विवाह वास्तव में दूसरा जन्म होता है। इसी कारण विवाह लग्न से जुड़े भावों की स्थिति अच्छी होनी चाहिए।
सगन मुहूर्त (सगाई)
मास (महीना) | वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, मार्गशीर्ष, फाल्गुन तथा मघा |
तिथि | कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा (प्रथमा) तथा शुक्ल पक्ष की द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, दशमी, द्वादशी, त्रयोदशी एवं पूर्णिमा (2, 3, 5, 6, 7, 8, 10, 12, 13 तथा 15) |
वार (दिन) | रविवार, बुधवार तथा शुक्रवार |
नक्षत्र | अश्विनी नक्षत्र, कृतिका नक्षत्र, आर्द्रा नक्षत्र, चित्रा नक्षत्र, पुनर्वसु नक्षत्र, पुष्य नक्षत्र, अश्लेषा नक्षत्र, पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र, जेष्ठा नक्षत्र, श्रावण नक्षत्र, धनिष्ठा नक्षत्र तथा शताभिषा नक्षत्र |
गोधूलि मुहूर्त
वह समय जब सूर्य की केवल दो तिहाई परिधि आसमान में दिखाई दे रही हो, जो शाम से दो घटी बाद तक होती है, गोधूलि बेला कहलाती है। पुराने समय में मवेशियों को गांव के बाहरी इलाकों में चराई के लिए ले जाया जाता था तथा शाम के समय जब वह घर आते तो उनके पैरों के द्वारा उड़ी हवा के कारण यह समय गोधूलि बेला कहलाया। गोधूलि लग्न केवल नीची जाति के लिए उपयुक्त बताई गई है। जहां तक हो सके प्रयास करना चाहिए कि विवाह सही मुहूर्त में हो सके और गोधूलि मुहूर्त से पूरी तरह बचना चाहिए। जब परंतु यदि अनिवार्य हो और कन्या विवाह योग्य हो गई हो तथा अच्छा मुहूर्त उपलब्ध ना हो ऐसे समय में गोधूलि मुहूर्त में का उपयोग किया जा सकता है।