गुरु अंगद देव जी सिखों के दूसरे गुरु थे । उनके बचपन का नाम लेहना था और उनका जन्म 1504 में पंजाब के हरिके नामक स्थान पर हुआ था । उनके पिताजी का नाम भाई फेरुमल जी एंव माता का नाम सभराई (रामो जी) था । गुरूजी का जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था । अपनी माता के प्रभाव में भाई लेहना जी दुर्गा माता की पूजा करने लगे । लेहना जी हर वर्ष ज्वालामुखी मंदिर में जाने वाले जत्थे का नेतृत्व करते थे ।
गुरु अंगद देव जी का पारिवारिक जीवन
गुरु अंगद देव जी (उस समय उनको लेहना नाम से जाना जाता था) ने जनवरी 1520 में माता खीवी जी (उसी गाँव के निवासी देविचन्द्र खत्री की बेटी) से विवाह किया और उनके दो पुत्र व दो पुत्रियाँ हुई । पुत्रों का नाम भाई दसु व भाई दातु था, एवं पुत्रियों का नाम बीबी अमरो व बीबी अनोखी था । उनकी ईमानदारी और चरित्र की लोग प्रंशसा करते न थकते थे और कुछ समय बाद खडूर के लोगो ने लेहना जी को अपना मुखिया चुन लिया. उनके पूरे परिवार को मुगलों तथा बलूच उत्पातियों द्वारा तोड़फोड़ करने के कारण अपने पैतृक गाँव को छोड़ना पड़ा । इसके बाद अंगद देव जी का परिवार तरनतारण साहिब (अमृतसर शहर से लगभग 25 किलोमीटर दूर एक छोटा सा शहर) के पास व्यास नदी के किनारे ग्राम खडूर साहिब में बस गया ।
गुरू अंगद देव जी का आध्यात्म की ओर पहला कदम और अन्य योगदान
एक बार लेहना जी ने भाई जोधा (गुरुनानक साहिब के एक सिख) से गुरुनानक साहिब के एक भजन के बारे में सुना और रोमांचित हो गये और उन्होंने करवालपुर के रास्ते से आगे बढ़ने का फैसला किया, ताकि ज्वालामुखी मंदिर की वार्षिक तीर्थयात्रा के समय गुरुनानक साहिब की एक झलक मिल सके । गुरुनानक साहिब से पहली मुलाकात ने उन्हें पूरी तरह से बदल दिया । उन्होंने हिन्दू देवियों की पूजा को त्याग दिया और खुद को पूरी तरह गुरुनानक देव जी की सेवा में समर्पित कर दिया और उनके सिख (शिष्य) बन गये और करतारपुर में रहने लगे ।
गुरुनानक देव जी के प्रति उनकी भक्ति इतनी महान थी कि उन्हें स्वयं गुरुनानक जी ने 7 सितम्बर, 1539 में द्वितीय नानक के रूप में स्थापित कर दिया । परन्तु ऐसा करने से पहले गुरुनानक देव जी ने विभिन तरीकों से उनका परिक्षण किया और उनमे आज्ञाकारिता व सेवा का एक अवतार पाया । गुरुनानक देव जी ने उन्हें एक नया नाम “अंगद” (गुरु अंगद साहिब) दिया। उन्होंने करतारपुर में गुरुनानक साहिब की सेवा में लगभग सात साल बिताये ।
गुरुनानक जी की मृत्यु के बाद, अंगद देव जी ने उनके विचारों को आगे बढाया । विभिन्न सम्प्रदायों के योगियों और संतो ने अंगद देव जी से मुलाकात की और उनके साथ सिख धर्म के बारे में विस्तृत चर्चा की । गुरु अंगद साहिब ने गुरुमुखी लिपि के रूप में ज्ञात एक नई वर्णमाला पेश की, जो पुराणी पंजाबी लिपि के पात्रों को संशोधित करती है । उन्होंने बच्चों को शिक्षित करने के लिए कई विद्यालय खुलवाये ताकि साक्षर लोगों की संख्या बढ़ सके । युवाओं के लिए उन्होंने माल अखाड़ा की शुरुआत की, जिससे युवावर्ग आध्यात्म अभ्यास के साथ-साथ, शारीरिक अभ्यास भी कर सके। अंगद देव जी ने भाई बाला जी से गुरुनानक साहिब के जीवन के बारे में तथ्य एकत्र किये और गुरुनानक साहिब की पहली जीवनी लिखी । उन्होंने 63 श्लोक भी लिखे जिन्हें बाद में पांचवे सिख गुरु द्वारा गुरु ग्रन्थ साहिब में शामिल किया गया था।
गुरु अंगद देव जी ने गुरुनानक देव जी द्वारा शुरू की गयी ‘गुरु का लंगर’ की संस्था को लोकप्रिय बनाया और उसका विस्तार किया। अंगद देव जी ने सिख धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए गुरुनानक द्वारा स्थापित महत्वपूर्ण स्थानों और केन्द्रों का दौरा किया। उन्होंने सेकड़ो नई धर्मशालाओं की स्थापना की और इस प्रकार सिख धर्म के आधार को मजबूत किया। गुरु जी ने सन्देश दिया कि “यह अहंकार की प्रकृति है, लोग अहंकार में अपने कार्यो को करते हैं, यह अहंकार का ही बंधन है जो समय-समय पर लोगों को पीड़ित करता है, इसलिए अपने दंभ को ख़त्म करें और फिर से मानवता की ओर बढ़े”। गुरु अंगद देव जी दुनिया के उन शिक्षकों में से एक थे जिनका सन्देश सभी लोगों के सामूहिक उत्थान का है और सभी के लिए मान्य है।
शारीरिक योग्यता
गुरु अंगद देव जी की शारीरिक दक्षता में बेहद दिलचस्पी थी और वे अक्सर अपने भक्तों को सुबह उठकर प्रार्थना करने के बाद खेलों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करते थे । गुरूजी ने लोगों को स्वस्थ जीवन जीने के लिए प्रेरित किया । गुरूजी के अनुसार यदि आप शारीरिक रूप से अच्छे हैं, तो आप जीवन में उच्च लक्ष्यों का पीछा कर सकते हैं । उन्होंने समाज के वंचितों को अच्छी सेहत बनाये रखने के बहुत अवसर प्रदान किये । उन्होंने सभी लोगों को शारीरिक प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए कुश्ती मुकाबलों (माल अखाड़ों) में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया । उनके द्वारा शुरू किये इन कदमों ने जाति और पंथ के भेद के बिना एक आध्यात्मिक, शिक्षित व स्वस्थ सिख समुदाय की नींव रखी ।

गुरू अंगद देव जी द्वारा दिए गये महत्वपूर्ण सन्देश
- समानता– गुरु अंगद जी एक जातिविहीन एंव वर्गविहीन समाज के लिए खड़े थे, जिसमे सब समान हों. जिसमे कोई भी एक दुसरे से श्रेष्ठ न समझा जाए और न ही किसी में किसी प्रकार का लालच हो । संक्षेप में उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमे सदस्य एक परिवार की तरह रहते हों, एक दुसरे की मदद व समर्थन करते हों । उन्होंने न केवल समानता का प्रचार किया बल्कि इसका अभ्यास भी किया । मानव समानता को बढ़ावा देने के लिए गुरूजी ने एक सामुदायिक रसोईघर की स्थापना की जहाँ किसी भी जाति या स्थिति की परवाह किये बिना सभी लोग एक साथ बैठे और भोजन ग्रहण करें । उन्होंने एक पवित्र मंडली या संगत की स्थापना की जहाँ विभिन्न मान्यताओं और भिन्न सामाजिक स्थिति के लोग एक साथ बैठकर गुरु के भजन गाते थे, और एक महान जीवन जीने के लिए प्रेरित होते थे ।
- ईश्वर के प्रति भक्ति व प्रेम– गुरूजी ने ईश्वर की भक्ति और प्रेम पर तथा आपस में एकता पर बल दिया । जीवन का उदेश्य ईश्वर की तलाश करना है, और उसके लिए प्रयास करना और एकजुट होना है । गुरु अंगद जी के अनुसार किसी ने भी ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा के बिना कभी भी स्वीकृति या आत्मबल प्राप्त नहीं किया है । यदि कोई बीमारी और दवा दोनों को समझता है तभी वह एक बुद्धिमान चिकित्सक है, अपने आप को किसी भी प्रकार के बुरे काम में न डालें । वह गुणी व्यक्ति जो लालच के रास्ते पर नहीं चलता है और जो सत्य का पालन करता है, उसे स्वयं ईश्वर द्वारा स्वीकार और गले लगाया जाता है ।
- निर्भयता– गुरु अंगद देव जी का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब अनुष्ठान, जाति भेद, और अन्धविश्वास ने लोगों को निम्न स्तर के अस्तित्व में ला दिया था । गुरूजी ने ऐसे लोगों को हिम्मत दी तथा उनका उत्थान किया । अपने स्वयं के उदाहरण से उन्होंने लोगों को निडर बनाया और उनमे एक नया जीवन और आत्मा का संचार किया । “जिनके पास ईश्वर का भय है उनके पास कोई अन्य भय नहीं आ सकता है; जिन लोगों के पास ईश्वर का ही भय नहीं है, वे अक्सर डरपोक होते हैं; हे नानक, यह रहस्य प्रभु के दरबार में ही प्रकट होता है”. गुरूजी ने शर्म की गरिमा को भी समाप्त कर दिया और जन्म के आधार पर समाज के विभाजन को कम कर दिया और समानता और सार्वभौमिक भाईचारे के विचार के आधार पर एक वर्गहीन समाज की स्थापना की ।
- सेवा– गुरु अंगद देव जी सभी मानव जाति की सेवा और भलाई में विश्वास करते थे । उन्होंने अनुष्ठानो और औपचारिकताओं के पालन के बजाय चरित्र निर्माण पर जोर दिया । गुरु अंगद जी ने आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने सिखों को जो मार्ग बताया वह सेवा और अच्छे कार्यों और एक भगवान की भक्ति और पूजा के माध्यम से था । उन्होंने अपने अनुयायियों को प्रार्थना के द्वारा दिव्य अनुग्रह प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया ।
गुरु अंगद देव जी का निधन
गुरु अंगद देव का निधन 29 मार्च 1552 को 48 वर्ष की उम्र में हुआ था । गुरु अंगद देव जी ने गुरुनानक देव जी के उदाहरण का अनुसरण करते हुए, अमरदास को अपनी मृत्यु से पहले अपने उतराधिकारी (तीसरे नानक) के रूप में नामित किया । उन्होंने, गुरुनानक देव जी से प्राप्त सभी पवित्र लिपियों को गुरु अमरदास को भेंट किया। कुछ इतिहासकारों का यह मानना है कि अंगद देव जी ने एक नया शहर बनाना शुरू किया था, खडूर साहिब के पास गोइंदवाल में और उनके निर्माणकार्य की निगरानी के लिए गुरु अमर दास को नियुक्त किया गया था । कुछ इतिहासकारों का मानना है की मुग़ल सम्राट हुमांयू जब शेरशाह सूरी से पराजित हुआ, दिल्ली के सिंहासन को पुन प्राप्त करने के लिए गुरु अंगद देव जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आया था ।