जानिए अमृता प्रीतम के जीवन के रोचक और अनकहे पहलू

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अमृता प्रीतम भारतीय उपन्यासकार, निबंधकार और कवियित्री थीं। उन्होंने हिंदी और पंजाबी भाषा में अपनी रचनाएं की और भारत और पाकिस्तान दोनों से प्यार और सम्मान अर्जित किया। अपने छः दशकों से अधिक समय के कैरियर में उन्होंने 100 से अधिक किताबों की रचनाएं कीं, जिनमें काव्य, उपन्यास, आत्मकथाएं, निबंध और पंजाबी लोकगीत आदि का संग्रह मिलता है। इसके साथ ही उन्होंने एक आत्मकथा भी लिखी जिसका भारतीय और अन्य विदेशी भाषाओं में बहुतायत रुप से अनुवाद किया गया है।

Table Of Contents
  1. अमृता प्रीतम का एकाकीपूर्ण प्रारंभिक जीवन 
  2. अमृता प्रीतम का रोमांटिक कवियत्री से आंदोलनकारी लेखिका बनने का सफ़र
  3. 1947 का विभाजन और उससे प्रभावित अमृता प्रीतम का जीवन
  4. अमृता प्रीतम का साहित्यिक सफ़र 
  5. महिला होने के बावजूद अमृता प्रीतम का पंजाबी साहित्य में अभूतपूर्व योगदान
  6. अमृता प्रीतम का फ़िल्म जगत में योगदान
  7. अमृता प्रीतम पर ओशो विचारधारा का प्रभाव
  8. अमृता प्रीतम का सामाजिक कार्यों के प्रति योगदान
  9. पुरस्कार एवं सम्मान 
  10. अमृता प्रीतम का अधूरा व्यक्तिगत जीवन 
  11. अमृता प्रीतम के पुत्र की मृत्यु से जुड़ा अनसुलझा राज़
  12. गूगल द्वारा अमृता प्रीतम को दी गई श्रद्धांजलि
  13. गुलज़ार एवं बॉलीवुड द्वारा अमृता प्रीतम को दी गई श्रद्धांजलि
  14. अमृता प्रीतम के कार्यों का अन्य भाषाओं में अनुवाद
  15. अमृता प्रीतम की रचनाएँ 
  16. उपन्यास
  17. छोटी कहानियाँ
  18. काव्यशास्त्र

अमृता प्रीतम का एकाकीपूर्ण प्रारंभिक जीवन 

अमृता प्रीतम का जन्म 1919 में पंजाब के मंडी बहाउद्दीन में अमृत कौर के रूप में हुआ था, इनकी माता राज बीबी की यह इकलौती संतान थी। इनकी मांएक स्कूल में अध्यापिका थी और इनके पिता करतार सिंह हितकारी जो कि एक कवि होने के साथ ही बृज भाषा में के महान विद्वान भी थे। यह साहित्यिक पत्रिका के संपादक के रूप में कार्य किया करते थे। इसके अलावा, इनके पिता एक प्रचारक के रूप में भी कार्य करते थे – सिख धर्म के प्रचारक। इनकी आयु मात्र 11 वर्ष की थी जब इनकी मां की मृत्यु हो गई। इसके बाद इनके पिता इन को लेकर लाहौर चले गए, 1947 तक यह लाहौर में प्रवास करती रहीं, जब तक यह वापस भारत नहीं आ गई।

कम उम्र में ही मां के चले जाने के कारण इन्हें जिम्मेदारियों को ना चाहते हुए भी उठाना पड़ा जिम्मेदारियों का भार और अकेलेपन के कारण इन्होंने कम उम्रमें ही लिखना शुरु कर दिया। इनकी कविताओं का पहला संकलन “अमृत लेहरन (अमर लहरें)” सन् 1936 में प्रकाशित हुई। 16 वर्ष के उम्र में इनकी शादी प्रीतम सिंह से करा दी गई। प्रीतम सिंह एक संपादक के रूप में कार्य करते थे और इन्हें यह बचपन से जानती थीं। शादी के बाद इन्होंने अपना नाम अमृतकौर से बदलकर अमृता प्रीतम रख लिया। इन्होंने 1936 से 1943 के बीच लगभग आधा दर्जन कविताओं का संग्रह किया।

अमृता प्रीतम का रोमांटिक कवियत्री से आंदोलनकारी लेखिका बनने का सफ़र

यद्यपि इन्होंने अपनी शुरुआत एक रोमांटिक कवित्री के रूप में की थी परंतु जल्द ही इन्होंने इस धारा को बदल दिया और प्रगतिशील लेखक के आंदोलन का हिस्सा बनी जिसका असर उनके संग्रह “लोक पे (पीपल्स एंगुइश, 1944)” में साफ देखा गया। 1943 के “बंगाल के अकाल” की रचना की, जिसकी खुले तौर पर आलोचना की गई। इसमें युद्धग्रस्त अर्थव्यवस्था के विषय में लिखा गया था।

1947 का विभाजन और उससे प्रभावित अमृता प्रीतम का जीवन

1947 में भारत के विभाजन के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा के कारण 10 लाख से ज्यादा हिंदू, मुस्लिम और सिख मारे गए। उस समय अमृता प्रीतम की उम्र मात्र 28 साल थी और उनकी पहचान केवल एक पंजाबी शरणार्थी के रूप में रह गई, यह वह समय था जब वह लाहौर को छोड़कर भारत आई थीं। इसके बाद 1947 में जब वह अपने बेटे के साथ देहरादून से दिल्ली की यात्रा कर रही थीं (इस समय वह गर्भवती भी थीं), उन्होंने अपनी पीड़ा को एक कविता के माध्यम से कागज के टुकड़े पर व्यक्त किया, यह कविता “अज आखा वारिस शाह नू” (“मैं वारिस शाह से पूछती हूं”) शीर्षक के साथ लिखी गई। इस कविता ने उनको काव्य समाज में अमर बना दिया। इस कविता के माध्यम से उस समय हुए विभाजन की भयावहता का सबसे मार्मिक वर्णन समाज के सामने आया। सूफी कवि वारिस शाह हीर रांझा जैसी प्रसिद्ध और मार्मिक गाथा के लेखक थे। इन्होंने अपनी कविता में इन्हीं को संबोधित किया। इनके साथ यह अपनी जन्मभूमि साझा करती थी। सन् 1947 में जब भारत का विभाजन हुआ उस समय भारत और पाकिस्तान के स्वतंत्र रूप में अलग हो गए और अमृता प्रीतम जी लाहौर से भारत आ गई हालांकि वह अपने जीवन पर्यंत पाकिस्तान में भी उतनी ही लोकप्रिय रहीं जितनी कि उस समय उनके समकालीन मोहन सिंह और शिव कुमार बटालवी थे।

अमृता प्रीतम का साहित्यिक सफ़र 

प्रसिद्ध रचनाएँ

अमृता प्रीतम को सबसे ज्यादा इनकी मार्मिक कविता की रचना के लिए याद किया जाता है जिसका शीर्षक “अज्ज आखां वारिस शाह नू” ( टुडे आई इवोक वारिस शाह – “ओडे टू वारिस शाह”), था। यह 18 वीं शताब्दी के दौरान पंजाबी कवियित्री द्वारा भारत विभाजन के समय हुए नरसंहार की पीड़ा पर व्यक्त किया गया शोक गीत था। एक उपन्यासकार के रूप में, उनका सबसे प्रसिद्ध काम पिंजर (“द कंकाल”, 1950) था, जिसमें उन्होंने अपने यादगार चरित्र, “पुरो” के विषय में विस्तार से लिखा। इसमें महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा, मानवता की हानि और अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह से भाग्यपर निर्भर होने जैसी संवेदनशील बातों को बहुत ही अच्छे से लिखा गया है। इस उपन्यास से प्रेरित होकर के हिंदी फीचर फिल्म “पिंजर (2003)” में बनाई गई, जिसने कई कैटेगरी में पुरस्कार भी जीते थे।

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महिला होने के बावजूद अमृता प्रीतम का पंजाबी साहित्य में अभूतपूर्व योगदान

इनको पंजाबी साहित्य में महिलाओं की भागीदारी के रूप में सबसे ज्यादा सम्मान मिला दूसरे शब्दों में कहें तो इन्होंने महिलाओं के लिए पंजाबी साहित्य में सबसे महत्वपूर्ण आवाज़ के रूप में अपनी पहचान बनाई। 1956 में वह “साहित्य अकादमी अवार्ड” पाने वाली पहली महिला बनीं, यह सम्मान इन्हें इनकी कविता “मैग्नम ओपस, सुनेहडे (संदेश)” के लिए दिया गया था, इतना ही नहीं इसके बाद इन्हें “भारतीय ज्ञानपीठ” जो कि भारत में साहित्यिक पुरस्कारों में सबसे बड़ा सम्मान माना जाता है, से भी नवाजा गया। यह सम्मान इन्हें 1982 में इनकी रचना “कागज़ ते कैनवस (द पेपर एंड कैनवस)” के लिए दिया गया। इनकी रचनाओं में ज्यादातर रचनाएं विभाजन के विषय पर केंद्रित थीं। उन्होंने कई वर्षों “नागमणि” नामक एक मासिक साप्ताहिक पत्रिका जो कि पंजाबी भाषा में लिखी गई थी, का कई सालों तक संपादन किया, इन्होने 33 वर्षों तक इमरोज़ के साथ मिलकर इसे चलाया, हालांकि विभाजन के बाद उन्होंने इसका हिंदी अनुवाद भी लिखा।

अमृता प्रीतम का फ़िल्म जगत में योगदान

अमृता प्रीतम द्वारा लिखित किताबों में “धरती सागर ते सिप्पियां” वह पहली किताब थी जिस पर हिंदी फीचर फिल्म बनाई गई। इस किताब से प्रेरित फिल्म का नाम “कादंबरी” रखा गया जो सन् 1965 में रिलीज हुई। इसके बाद “उन्नाह दी” की कहानी पर आधारित “डाकू (डकैत 1976) बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित फिल्म बनाई गई। इनके द्वारा रचित उपन्यास “पिंजर” (“द कंकाल 1950”) विभाजन के दौरान हुए दंगों के दर्द और साथ औरतों पर हुए अत्याचारों कहानी को बयां करता है। चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा इस उपन्यास पर आधारित फिल्म भी बनाई गई, जिसने अनेक पुरस्कार जीते क्योंकि यह उपन्यास पूरी तरह से मानवतावाद पर आधारित था। अमृता जी ने दोनों देशों के निवासियों की विभाजन के दौरान हुई पीड़ा को इस उपन्यास में बखूबीबयान किया था। इस फिल्म की शूटिंग राजस्थान और पंजाब के सीमावर्ती क्षेत्रों में की गई।

अमृता प्रीतम पर ओशो विचारधारा का प्रभाव

उम्र बढ़ने के साथ इन्होंने ओशो विचारधारा को अपनाया और कई सारी किताबें ओशो विचारधारा पर आधारित लिखीं, जिनमें “एक ओंकार सतनाम” भीशामिल है। इसके बाद इन्होंने आध्यात्मिक विषयों पर भी लिखना शुरू कर दिया था – जैसे कि “काल चेतना” और “अज्ञात का निमंत्रण” आदि। इतना हीनहीं, अमृता जी ने कुछ आत्म कथाएं भी प्रकाशित की थीं, जिनमें मुख्य रुप से “काला गुलाब 1968” “रसीदी टिकट 1976” और “अक्षरों के साए” शामिल हैं।

अमृता प्रीतम का सामाजिक कार्यों के प्रति योगदान

अमृता प्रीतम कुछ हद तक सामाजिक कार्यों में भी शामिल थी और आजादी के बाद जब सामाजिक कार्यकर्ता गुरु राधा कृष्ण ने जनता लाइब्रेरी कोदिल्ली लाने की पहल की, जिसका उदघाटन बलराज साहनी और अरुणा आसफ अली के द्वारा किया गया इस अवसर पर उन्होंने पूरे मनोयोग से अपनायोगदान दिया। यह अध्ययन केंद्र जो कि पुस्तकालय भी हैआज भी क्लॉक टावर दिल्ली में स्थापित है। इन्होंने भारत के विभाजन से पहले कुछ समय केलिए लाहौर के एक रेडियोस्टेशन के लिए काम भी किया था। इतना ही नहीं अमृता प्रीतम ने पंजाबी भाषा में 1961 तक ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली कीशाखा में भी कार्य किया।

पुरस्कार एवं सम्मान 

पंजाब रत्न पुरस्कार 

अमृता प्रीतम पंजाब रत्न पुरस्कार पाने वाली पहली प्राप्तकर्ता थी यह पुरस्कार उन्हें उस समय के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने दिया था साहित्यअकादमी पुरस्कार 1956 में उन्हें “सुनेहड़े” (सुनेहे शब्द का काव्य अल्पार्थक) के लिए दिया गया, यहां भी वह ऐसा महत्वपूर्ण पुरस्कार पाने वाली प्रथम महिला थीं।

भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार एवं पद्म विभूषण पुरस्कार 

अमृता प्रीतम को भारत का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार “भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार” सन् 1982 में “कागज ते कैनवास” के लिए दिया किया था। 1969 में इनको “पद्म श्री” से नवाजा गया और उसके बाद 2004 में इन्हें “पद्म विभूषण” भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान देकर सम्मानित किया गया।

अकादमी फ़ेलोशिप एवं डि. लीट. मानद उपाधि 

इतना ही नहीं अमृता प्रीतम को साहित्य अकादमी फेलोशिप जैसा भारत का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार से 2004 में सम्मानित किया गया। इन्होंनेडि.लिट. जैसी महान मानद डिग्री कई विश्वविद्यालयों से प्राप्त की, जिनमें दिल्ली यूनिवर्सिटी 1973 जबलपुर यूनिवर्सिटी 1973 और विश्व भारती 1987 शामिल हैं।

अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार 

सिर्फ भारतीय पुरस्कार ही नहीं अमृता प्रीतम जी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई पुरस्कार मिले हैं। इन्हें बुल्गारिया सरकार ने 1989 में “अंतरराष्ट्रीय वाट्सप्रोव” पुरस्कार से नवाज़ा और फ्रांस की सरकार द्वारा 1987 में “ऑर्ड्रे डेस आर्ट्स एट डेस लेट्रेस (ऑफिसर)” की उपाधि दी गई। अपने जीवन के अंत समय में इन्हें पाकिस्तानी सरकार ने पंजाबी अकादमी द्वारा सम्मानित किया। इस समय इन्होंने इस सम्मान को लेते समय टिप्पणी की थी कि “बड़े दिनों बाडे मेरे मायके को याद यार आयी .. ” (मेरी मातृभूमि ने मुझे लंबे समय बाद याद किया है) और साथ ही पाकिस्तान के पंजाबी कवियों द्वारा इन्हें एक चादर भी उपहार स्वरूप भेजी गई जो कि वारिस शाह और उनके साथी सूफी फकीर कवि बुल्ले शाह और सुल्तान बहू की समाधि की थी।

अमृता प्रीतम का अधूरा व्यक्तिगत जीवन 

1935 में अमृता कौर की शादी प्रीतम सिंह से कर दी गई, जो कि लाहौर के अनारकली बाजार के एक होज़री व्यापारी के बेटे थे। इनसे इनके दो बच्चे हुए, एक बेटा और एक बेटी। 1960 में अमृता प्रीतम ने अपने पति को छोड़ दिया। 1960 में तलाक हो जाने के बाद उनके कार्य और अधिक नारीवादी की तरफप्रेरित हो गईं। उनकी कहानियों और कविताओं आदि में उनकी शादी के दुखी अनुभव की छाप साफ दिखाई देती थी।

ऐसा भी कहा जाता है कि उन्हें साहिर लुधियानवी के प्रति अगाध स्नेह हो गया था। इन दोनों की इस प्रेम की कहानी को उनकी आत्मकथा “रसीदी टिकट” (राजस्व टिकट) में दर्शाया भी गया है। परंतु जब एक दूसरी महिला और गायिका सुधा मल्होत्रा साहिर की जिंदगी में आईं, तो अमृता खुद को किनारे कर लिया। इस समय इन्हें, इनके साथी कलाकार और लेखक इमरोज ने सांत्वना दीं। अपने जीवन के अंत के 40 वर्ष इन्होंने इमरोज़ के साथ बिताए। इस समय इन्होंने अपनी अधिकांश पुस्तकों के कवर को भी डिजाइन किया और अपने कई चित्रों का विषय भी निर्धारित किया। इन दोनों के साथ की जिंदगी भी एक किताब की तरह हो गई थी जिसको इन्होंने अमृता इमरोज “एक प्रेम कथा” का नाम देकर लिखा।

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अमृता प्रीतम के पुत्र की मृत्यु से जुड़ा अनसुलझा राज़

लंबी बीमारी के कारण 31 अक्टूबर 2005 को नई दिल्ली में 86 वर्ष की आयु में नींद में ही इनका देहांत हो गया। वह अपने साथी इमरोज़, बेटी कांधला, बेटे नवराज क्वात्रा, बहू अलका और पोते, वृषभ, नूर, अमन और शिल्पी साथ रहती थी। नवराज क्वात्रा की 2012 में उनके बोरीवली स्थित अपार्टमेंट मेंहत्या कर दी गई थी। तीन लोगों पर हत्या का आरोप भी लगाया गया था, लेकिन सबूतों के अभाव में वे तीनों बरी हो गए थे।

गूगल द्वारा अमृता प्रीतम को दी गई श्रद्धांजलि

31 अगस्त 2019 को गूगल ने उनके सम्मान में उनके समय जन्मदिन के उपलक्ष में उनका डूडल बनाकर उनके प्रति सम्मान प्रस्तुत किया। साथ में गूगल नेयह भी लिखा, “आज का डूडल, अमृता प्रीतम को मनाता है, जो इतिहास की सबसे बड़ी महिला पंजाबी लेखिका हैं, जिन्होंने ‘वह जीवन जीने की हिम्मत की, जिसकी वह कल्पना करती थीं।” आज से 100 साल पहले ब्रिटिश भारत के गुजरांवाला में जन्मीं अमृता प्रीतम ने 16 साल की उम्र में अपना पहलाकविता संग्रह प्रकाशित किया था।”

गुलज़ार एवं बॉलीवुड द्वारा अमृता प्रीतम को दी गई श्रद्धांजलि

2007 में, विख्यात गीतकार गुलज़ार द्वारा ‘अमृता का व्याख्यान गुलजार के द्वारा’ (अमृता रिसाइटिड बाय गुलजार) नामक एक ऑडियो एल्बम जारी किया गया , जिसमें उनके द्वारा अमृता प्रीतम की कविताओं का पाठ किया गया था। उनके जीवन से प्रभावित होकर एक हिंदी फीचर फिल्म भी बनाई है। एम.एस. सथ्यू जिन्होंने विभाजन के विषय में बनी फिल्म “गरम हवा” (1973) में निर्देशक के रूप में खूब प्रसिद्धि कमाई, उन्होंने अपने दुर्लभ नाट्य प्रदर्शन द्वारा “एक थी अमृता” के माध्यम से अमृता प्रीतम के प्रति अपनी श्रद्धांजलि व्यक्ति की।

अमृता प्रीतम के कार्यों का अन्य भाषाओं में अनुवाद

अमृता प्रीतम के बहुत सारे कार्यों को पंजाबी और उर्दू भाषा से अंग्रेजी, फ्रेंच, डेनिश, जापानी और मैंडरिन आदि भाषाओं में अनुवादित किया गया। इसकेसाथ ही इनमें उनके द्वारा लिखी गई आत्मकथात्मक रचनाएं जैसे ब्लॉक रोज और रसीदी टिकट (राजस्व टिकट) शामिल हैं।

अमृता प्रीतम की रचनाएँ 

छह दशक से अधिक के अपने करियर में, उन्होंने 28 उपन्यास, गद्य के 18 संकलन, पांच लघु कथाएँ और 16 विविध गद्य खंडों को लिखा।

उपन्यास

  • पिंजर
  • डॉक्टर देव
  • कोरे कागज़, उनचास दिन
  • धरती, सागर और सेपियन
  • रंग का पट्टा
  • दिली की गलियां
  • तेरहवां सूरज
  • यात्री
  • जीलावतन (1968)
  • हरदत्त का ज़िन्दगीनामा
  • आत्मकथा
  • ब्लैक रोज (1968)
  • रसीदी टिकट (1976)
  •  शब्दों की छाया (2004)

छोटी कहानियाँ

  • कहनियन जो कहनियन नहि
  • कहनियँ के अंगन में
  • केरोसिन की बदबू

काव्यशास्त्र

  • अमृत लेहरन (अमर लहरें) (1936)
  • जिउंडा जिवान (द एक्सुबेरेंट लाइफ) (1939) 
  • ट्रेल धोटे फूल (1942)
  • ओ गीता वालिया (1942)
  • बड़लाम दे लाली (1943)
  • सांझ दे लाली (1943)
  • लोक पीरा (द पीपल्स एंगुइश) (1944)
  • पथार गीते (द पीबल्स) (1946)
  • पंजाब दी आवाज़ (1952)
  • सुनेहडे (संदेश) (1955)-साहित्य अकादमी पुरस्कार
  • अशोक चटी (1957)
  • कस्तूरी (1957)
  • नागमणि (1964)
  • इक सी अनीता (1964)
  • चक नम्बर चट्टी (1964)
  • यूनिन्जा दिवस (49 दिन) (1979)
  • कागज़ ते कानवास (1981) – भारतीय ज्ञानपीठ
  • चुनि हुइ कवितयेन
  • एक बाट (साहित्यिक पत्रिका)
  • नागमणि , कविता मासिक

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