Home धर्म और आस्था जानिये स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी निरंजनानंद की अलौकिक जीवन गाथा

जानिये स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी निरंजनानंद की अलौकिक जीवन गाथा

1
617
ramkrishna paramhansa

स्वामी निरंजनानंद उन कुछ शिष्यों में से एक थे, जिन्हें श्री रामकृष्ण परमहंस ने नित्य-सिद्ध या ईश्वरकोटी कहा था – अर्थात, वे आत्माएं जो अपने जन्म से ही परिपूर्ण हैं और किसी भी प्रकार की माया से ग्रसित नहीं हो सकती हैं। निरंजनानंद के गुणों के संदर्भ में गुरु ने एक बार कहा था कि वह भगवान श्रीराम की विशेषताओं के साथ पैदा हुए थे, जो उनमें निहित थे।

स्वामी निरंजनानंद का प्रारंभिक जीवन

स्स्वामी निरंजनानंद का प्रारंभिक नाम नित्यिरंजन घोष था और उन्हें आमतौर पर निरंजन नाम से बुलाया जाता था। वह चौबीस परगना के एक गाँव से ताल्लुक रखते थे, लेकिन कलकत्ता में वह अपने मामा कालीकृष्ण मित्रा के साथ रहा करते थे। अपनी युवा अवस्था से ही वे कलकत्ता में अध्यात्मवादियों के एक समूह के साथ जुड़ गए। उन्हें अक्सर एक माध्यम के रूप में चुना जाता था, और उन्होंने भी स्वयं को हमेशा एक बहुत ही सफल माध्यम के रूप में साबित किया। इस दौरान उन्होंने अपने भीतर कुछ मानसिक शक्तियों का विकास किया – जैसे, चमत्कारिक तरीके से लोगों को ठीक करने की शक्तियाँ इत्यादि। ऐसा कहा जाता है कि एक बहुत धनी व्यक्ति अठारह वर्षों से अनिद्रा से पीड़ित था और उसने ठीक होने के लिए निरंजन की सहायता मांगी। निरंजन ने बाद में कहा: “मुझे नहीं पता कि उस आदमी को मुझसे कोई वास्तविक मदद मिली या नहीं। लेकिन यह देखने के बाद कि मनुष्य के पास इतना अधिक धन होने के बावजूद भी उसका जीवन इतना अधिक कष्टों से भरा रहता है, मुझे सभी सांसारिक वस्तुओं के प्रति एक शून्यता की भावना ने घेर लिया।”

श्री रामकृष्ण परमहंस के साथ स्वामी निरंजनानंद की पहली मुलाकात

श्री रामकृष्ण परमहंस की महान आध्यात्मिक शक्ति के बारे में सुनकर, एक दोपहर निरंजन उन्हें देखने के लिए दक्षिणेश्वर आए। कुछ लोग कहते हैं कि निरंजन सबसे पहले श्री रामकृष्ण के पास अपने अध्यात्मवादी मित्रों के साथ आए थे। ऐसा भी कहा जाता है कि उन्होंने श्री रामकृष्ण को माध्यम बनाने का प्रयास किया। पहले तो श्री रामकृष्ण मान गए और एक मासूम बच्चे की तरह माध्यम बनने के लिए बैठ गए। लेकिन जल्द ही उन्हें यह विचार पसंद नहीं आया और वे वहां से चले गए। निरंजन लगभग अठ्ठारह वर्ष के थे जब वे पहली बार श्री रामकृष्ण परमहंस से मिले। उस समय इनका रूप राजसी था – वह चौड़े कंधों और मजबूत काया के स्वामी थे। लड़का होने के बावजूद भी उनकी आँखों से निर्भयता झलक रही थी। जब निरंजन उनके पास आए तो श्री रामकृष्ण भक्तों के घेरे से घिरे हुए थे। शाम को जब सभी भक्त तितर-बितर हो गए, श्री रामकृष्ण ने निरंजन की ओर रुख किया और उनके बारे में पूछताछ की। आध्यात्मिकता में उनकी रुचि के बारे में जानने के बाद, श्री रामकृष्ण परमहंस ने युवा निरंजन से कहा: “अरें युवा! अगर तुम भूत और पिशाचों के बारे में सोचोगे तो तुम भी वही बन जाओगे। और अगर तुम ईश्वर और उनकी दिव्यता के विषय में विचार करोगे तो तुम्हारा स्वयं का जीवन भी दिव्य हो जाएगा। अब यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है कि तुम अपने जीवन के साथ क्या करना चाहते हो? प्रश्न सुनते ही निरंजन ने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कहा “वह अपने जीवन को दिव्य बनाना चाहेंगे।” उनका जवाब सुनते ही श्री रामकृष्ण ने निरंजन को अध्यात्मवादियों से सभी तरह के संबंधों को तोड़ने की सलाह दी, जिस पर निरंजन सहमत हो गए।

श्री रामकृष्ण के प्रति स्वामी निरंजनानंद का भावनात्मक झुकाव

पहली ही मुलाकात में श्री रामकृष्ण परमहंस ने निरंजन से ऐसे बात की जैसे वह उन्हें लंबे समय से जानते हों। अंधेरा होते देख श्री रामकृष्ण ने निरंजन को दक्षिणेश्वर में रात गुजारने की सलाह दी। लेकिन निरंजन ऐसा नहीं कर सके, क्योंकि उन्हें डर था कि यदि वह रात में यहां रुक गए तो उनके चाचा उनके लिए चिंतित हो उठेंगे। इसी कारण उन्होंने श्री रामकृष्ण से दोबारा आने का वादा करते हुए विदा ली। इस मुलाकात ने, जो कि छोटी सी थी, निरंजन को इतना प्रभावित किया कि घर आते समय पूरे रास्ते श्री रामकृष्ण के बारे में सोचते रहे। घर पर भी उन्हें मात्र श्री रामकृष्ण के विचारों ने घेरकर रखा था। दो-तीन दिनों के भीतर वह फिर से श्री रामकृष्ण के पास मिलने चले आए। जैसे ही श्री रामकृष्ण ने इन्हें दरवाजे के पास देखा, वह दौड़कर उनके पास गए और गर्मजोशी से उन्हें गले से लगा लिया। फिर गहरी भावनाओं के साथ कहने लगा: “हे युवा, दिन बीत रहे हैं, तुम भगवान को कब समझोगे? और यदि तुम ईश्वर को नहीं जानोगे, तो सारा जीवन व्यर्थ हो जाएगा। मैं इस बात को लेकर बेहद चिंतित हूं कि आप कब पूरे दिल से खुद को भगवान को समर्पित करेंगे।” निरंजन आश्चर्य से चुप था, और सोचा: “वास्तव में यह कितना अजीब है कि यह इतने बेचैन हैं सिर्फ यह सोचकर कि मुझे भगवान का एहसास नहीं हुआ है! यह आदमी कौन हो सकता है?” बहरहाल, गहरे भाव से बोले गए ये शब्द निरंजन के हृदय को भीतर तक छू गए। उन्होंने वह रात दक्षिणेश्वर में बिताई। इतना ही नहीं बल्कि उनका अगला दिन और उसके बाद का दिन भी श्री रामकृष्ण परमहंस के साथ परमानंद में व्यतीत हुआ। चौथे दिन वे कलकत्ता लौट आए। उनके चाचा उनके लिए बड़ी चिंता में थे। जब निरंजन घर लौटे, तो उनकी इस बिन बताई अनुपस्थिति के लिए उनके चाचा ने उन्हें डांटा और उन पर कड़ी नजर रखी जिससे कि वह दोबारा इस तरह कहीं जा ना सकें। हालांकि, बाद में निरंजन को जब दक्षिणेश्वर जाने की अनुमति दे दी गई।

स्वामी निरंजनानंद के विषय में गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के विचार

निरंजन बहुत स्पष्टवादी और खुले विचारों वाले व्यक्ति थे। उनके गुरु को उनका यह गुण बहुत पसंद था क्योंकि गुरु के अनुसार निरंजन का यह खुलापन और खुले दिमाग का यह गुण दुर्लभ गुण थे – यह ऐसे गुण थे जिन्हें किसी ने अपने पिछले जीवन में बहुत तपस्या करके के पश्चात प्राप्त किया हो। साथ ही यह गुण इस ओर भी संकेत देते थे कि उनके भीतर भगवान को महसूस करने की संभावना अधिक है। निरंजन को वैवाहिक जीवन से बहुत घृणा थी। जब उनके रिश्तेदारों ने उन पर विवाह के लिए दबाव डाला, तो वह इस विचार से घबरा गए। उन्हें लगा कि उनको उनकी बर्बादी की ओर घसीटा जा रहा है, जबकि वे अत्यंत पवित्र आत्मा थे। गुरु कहा करते थे कि निरंजन अर्थात बिना किसी “अंजन” का, अर्थात जिसके चरित्र में कोई दोष न हो।

स्वामी निरंजनानंद का स्वभाव एवं गुरू की सीख

निरंजन स्वभाव से थोड़े गर्म मिजाज के थे परंतु उनका हृदय अत्यंत कोमल था। यदि कोई उन्हें उकसा दे तो वह किसी भी सीमा तक जा कर क्रोध व्यक्त कर देते थे और हृदय की भावनाओं के अनुपात पर नियंत्रण गंवा बैठते। एक दिन वह देशी-नाव से दक्षिणेश्वर जा रहे थे। निरंजन की सुनवाई में कुछ साथी यात्रियों ने श्री रामकृष्ण के बारे में बुरा-भला बोलना शुरू कर दिया। निरंजन ने पहले विरोध किया। लेकिन जब उन्हें लगा के उनके विरोध करने का कोई भी परिणाम नहीं निकल रहा और लोग अभी भी उनके गुरु के विषय में बुरा भला बोल रहे हैं तो उन्होंने उस नाव को तेजी से हिलाना शुरू कर दिया और यात्रियों को उनके इस गलत कार्य के लिए डूबाने की धमकी दी। क्योंकि निरंजन का शरीर अत्यंत मजबूत था और उनकी इस उग्र मनोदशा को देखकर गुरु के विषय में निंदा करने वालों के ह्रदय में डर बैठ गया। जिसके फलस्वरूप निंदा करने वालों के दिलों में दहशत पैदा हो गई और इन सभी लोगों ने अपने इस अनुचित व्यवहार के लिए तुरंत माफी मांगी। जब श्री रामकृष्ण ने इस घटना के बारे में सुना, तो उन्होंने निरंजन को उनके इस गर्म मिजाज वाले स्वभाव के लिए कड़ी फटकार लगाई। साथ ही उनको समझाया कि “क्रोध एक घातक पाप है, आपको इसके अधीन नहीं होना चाहिए। मूर्ख लोग अपनी अज्ञानता के कारण कई बार कुछ भी बोल देते हैं। आपको इस तरह की बातों और लोगों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर देना चाहिए।

स्वामी निरंजनानंद द्वारा कार्यालय में एक नौकरी करने पर श्री रामकृष्ण परमहंस के विचार

एक समय निरंजन को एक कार्यालय में एक नौकरी को करने के लिए स्वीकार करने पर मजबूर किया गया। जब यह खबर श्री रामकृष्ण के पास पहुंची, तो वे बहुत दुखी हुए और उन्होंने कहा, “मुझे उनकी मृत्यु की खबर से इतना अधिक दुख ना होता जितना यह जानकर हुआ है।” बाद में जब उन्हें पता चला कि निरंजन ने अपनी बूढ़ी मां के कारण इस नौकरी को स्वीकार किया था, तो श्री रामकृष्ण ने राहत की सांस ली और कहा: “ओह, तो यह ठीक है। परंतु इससे आपका दिमाग खराब नहीं होना चाहिए। लेकिन अगर आप ने ऐसा कुछ स्वयं के लिए किया होता तो यह मेरी कल्पना से भी परे होता। सच कहूं तो यह मेरे लिए अकल्पनीय है कि आप स्वेच्छा से इस तरह‌ नौकरी के समान किसी कार्य को कर भी सकते हैं।” इन शब्दों को सुनकर, वहां बैठे दर्शकों में से एक ने श्री रामकृष्ण परमहंस से पूछा कि “क्या वह नौकरी करने की निंदा कर रहे हैं और यदि ऐसा है, तो कोई अपने और अपने परिवार का पालन पोषण किस प्रकार कर सकता है?” यह सुनकर श्री रामकृष्ण परमहंस ने टिप्पणी की: “दूसरों को वह करने दें जो उन्हें पसंद है। मैं ये बात उन युवा उम्मीदवारों के संदर्भ में कह रहा हूं जो अपने आप में एक वर्ग बनाते हैं।”

गुरु के निधन के पश्चात स्वामी निरंजनानंद का जीवन

निरंजन लंबे समय तक नौकरी जैसे कार्य में संलग्न नहीं रह सके। जब श्री रामकृष्ण कोसीपोर में बीमार थे, निरंजन उन युवा शिष्यों में से एक थे, जो उनके साथ रहे और दिन-रात गुरु की जरूरतों को पूरा किया, इस उम्मीद के साथ कि वे अपनी समर्पित सेवा के माध्यम से अपने गुरु श्री राम कृष्ण को जल्द ही स्वस्थ कर पाएंगे। श्री रामकृष्ण के निधन के बाद, निरंजन बारानगर में मठ में शामिल हो गए और सत्य की प्राप्ति के लिए खुद को पूर्ण हृदय और आत्मा समर्पित कर दिया। वह मठ में स्थापित गुरु के अवशेषों की पूजा के लिए असाधारण दृढ़ता में शशि (स्वामी रामकृष्ण-नंद) के सहकर्मी बने रहे। श्री रामकृष्ण में उनका विश्वास अत्यंत जीवंत था कि इस विश्वास ने उन्हें इतना अधिक मजबूत बना दिया कि वह संसार की प्रशंसा या दोष के प्रति बेपरवाह हो गए। जब स्वामी विवेकानंद, पश्चिम में अपनी विजयी सफलता अर्जित करने के बाद भारत लौट रहे थे तो स्वामी निरंजनानंद उनसे मिलने के लिए कोलंबो गए।

स्वामी निरंजनानंद की बीमारी एवं निधन

बाद में निरंजनानंद, स्वामी विवेकानंद के साथ उत्तर भारत के अपने दौरे में कुछ स्थानों पर गए। कुछ समय के लिए वे बनारस में तपस्या करते रहे और मधुकरी भिक्षा पर आश्रित रहे। अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्षों के दौरान वे पेचिश रोग से बहुत पीड़ित हो गए थे जिसके कारण कुछ समय पश्चात उनका निधन हो गया।

स्वामी निरंजनानंद की पवित्र माता से अंतिम मुलाकात

स्वामी निरंजनानंद के हृदय में बहुत प्रेम था, हालांकि उनका यह रूप विस्मय रूप से प्रेरित करता था। पवित्र माता से उनकी अंतिम मुलाकात बहुत ही मार्मिक थी। “इसने उनके प्रेमपूर्ण, आवेगी स्वभाव का खुलासा किया। हालांकि उन्होंने किसी भी प्रकार के निकट आने वाले अंत का कोई उल्लेख नहीं किया, लेकिन वह एक अश्रुपूर्ण बच्चे की तरह था जो अपनी माँ से लिपटा हुआ था। उन्होंने जोर देकर कहा कि “पवित्र माँ उनके लिए सब कुछ करती हैं, यहाँ तक कि उन्हें खाना भी खिलाती हैं, और वह भी केवल उसी भोजन को करना चाहते हैं जो पवित्र मन है उनके लिए तैयार किया है परंतु जब समय आया पवित्र मां को छोड़कर जाने का तो उन्होंने अनिच्छा से स्वयं को माता के चरणों में अर्पित करते हुए अपने अश्रुओं को रोका और वहां से चुपचाप चले गए। वह यह जानते थे कि अब वह उनसे दोबारा कभी नहीं मिल पाएंगे।” ऐसा एक भक्त ने बताया था।

स्वामी विवेकानंद के शब्दों में स्वामी निरंजनानंद

वास्तव में पवित्र माता के प्रति उनकी भक्ति अतुलनीय थी। स्वामी विवेकानंद कहा करते थे, “निरंजन हृदय में पवित्र माता के प्रति इतनी अधिक भक्ति थी कि मैं उनके एक हजार दोषों को केवल उसी के कारण क्षमा कर सकता हूं।” उनमें कोमलता और क्रोध का अजीब सा मिश्रण था। सत्य के प्रति उनका प्रेम अडिग था। एक बार कलकत्ता के एक सज्जन ने बनारस शहर में एक शिव मंदिर बनवाया। जब स्वामी विवेकानंद ने यह सुना तो उन्होंने टिप्पणी की, “यदि वह गरीबों के कष्टों को दूर करने के लिए कुछ करते हैं, तो उन्हें ऐसे एक हजार मंदिरों के निर्माण का पुण्य प्राप्त होगा।” जब महान स्वामी की यह टिप्पणी सज्जन के कानों तक पहुंची, तो वे बनारस में रामकृष्ण मिशन होम ऑफ सर्विस के लिए आर्थिक मदद की एक बड़ी पेशकश के साथ आगे आए। उस समय उस व्यक्ति के अंदर उत्साह अत्यंत केंद्रक अवस्था में था परंतु जैसे-जैसे समय बीता उसके उत्साह का आवेग ठंडा हो गया और वह उस राशि को कम करना चाहने लगा जो वह पहले देने को पूरी शिद्दत से तैयार था। हालांकि उस व्यक्ति के इस तरह के बर्ताव की वजह से स्वामी निरंजनानंद के मन में उस व्यक्ति के प्रति मौजूद सच्चाई की भावना को गहरी ठेस पहुंची। जिसके कारण उन्होंने उस व्यक्ति के द्वारा दी जा रही आर्थिक सहायता के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। हालांकि इतनी बड़ी आर्थिक सहायता को मना करने का मतलब संस्था के लिए आर्थिक नुकसान था। बाहरी घटनाओं से आध्यात्मिक व्यक्तित्व का अनुमान लगाना बहुत कठिन है। किसी व्यक्ति की आध्यात्मिक श्रेष्ठता की ऊंचाई का अंदाजा लगाया जा सकता है लेकिन केवल कुछ हद तक। स्वामी निरंजनानंद ने कई लोगों के जीवन पर अपने जीवन की छाप छोड़ी। कुछ ने तो भगवान के लिए सब कुछ त्याग दिया और उनके प्रभाव के कारण श्री रामकृष्ण की संस्था में शामिल हो गए। सबसे बढ़कर, स्वामी निरंजनानंद को जानने के लिए हमें उस बात को जानना चाहिए जो गुरु ने उनके बारे में कहा था: कि स्वामी निरंजनानंद उनके “अंतरंगों” में से एक थे, अर्थात, उनके भक्तों के आंतरिक चक्र से संबंधित थे।

1 COMMENT

Leave a Reply