श्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी देवी ने भंडासुर नाम के अति-शक्तिशाली दानवराज को परास्त करने के लिए अपने शरीर के विभिन्न हिस्सों से कई प्रकार की उत्पत्तियाँ कीं.
- अपने आप से एक पुरुष स्वरुप की रचना की: कामेश्वर
- अपनी बायीं आँख से रचना की: चंद्रमा
- अपनी दायीं आँख से रचना की: सूर्य
- अपने तीसरे नेत्र से रचना की: अग्नि
उनकी बायीं आँख से चंद्रमा की रचना होने के बाद ब्रह्मा और लक्ष्मी उत्पन्न हुए.
अपनी दायीं आँख से सूर्य की रचना होने के बाद विष्णु और पार्वती उत्पन्न हुए.
उनके तीसरे नेत्र से अग्नि की रचना होने के बाद शिव और सरस्वती उत्पन्न हुए.
ऐसी मान्यता है कि चूंकि ब्रह्मा-लक्ष्मी, विष्णु-पार्वती तथा शिव-सरस्वती एक ही जगह से उत्पन्न हुए इसलिए उनमें भाई-बहन का रिश्ता है. आगे चलकर ब्रह्मा ने सरस्वती से विवाह किया, विष्णु ने लक्ष्मी से और शिव ने पार्वती से. इन विवाह के संबंधों के बाद श्री ललितादेवी की इच्छा अनुरूप प्रकृति का सर्जन होता रहा.
श्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी देवी ने अपने शरीर के भागों से और रचनायें पैदा कीं, जो नीचे लिखी हैं.
अपने लम्बे, घने, काले बालों से: अँधेरा
अपने सर पर पहने हुए गहनों के दानों से: नव ग्रह
अपने माथे पर विद्यमान आभूषण से: तारे
अपनी सांस से: वेद
अपनी वाणी से: काव्य और गद्य
अपनी ठोड़ी से: काव्यांग
अपने गले की सिलवटों से: शास्त्र
अपने सीने से: पर्वत
अपने मन से: आनंद
अपनी उँगलियों के नाखूनों से: विष्णु भगवन के दशावतार
अपनी हथेलियों से: संध्या
अपने ह्रदय से: बाला देवी
अपनी बुद्धि से: श्यामला देवी (राज मातंगी देवी)
अपने अहम् से: वाराही देवी
अपनी मुस्कराहट से: विघ्नेश्वर
अपने ‘अंकुश’ से: सम्पत्करी देवी
अपने ‘पाश’ से: अश्वारूढा देवी
अपने गालों से: नकुलेश्वरी देवी
अपनी कुण्डलिनी शक्ति से: गायत्री देवी
अपने चक्र राज नाम के रथ से: अष्ट देवता
इस प्रकार महान सर्जन परिपूर्ण करने के बाद श्री ललिता देवी ने श्री शिव को विशाल ‘शिव चक्र’ बनाने के लिए आग्रह किया. इस शिव चक्र से निकलने वाली ध्वनि से २३ देवता उत्पन्न हुए.

श्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी देवी द्वारा भंडासुर राक्षस से युद्ध के लिए तैयारियां.
(1) श्री ललिता देवी ने श्री श्यामला देवी को अपनी प्रधान मंत्रिणी बनाया और उन्हें अपनी उँगलियों की अंगूठी प्रदान की. श्यामला देवी को ‘ललिता सहस्रनाम’ में ‘मंत्रिणी देवी’ भी कहा गया है.
(2) श्री ललिता देवी ने वाराही देवी को अपनी सेना का मुख्य बनाया. वाराही देवी को दंडनाथ देवी या वार्ताली देवी भी कहा जाता है. उन्होंने अपनी आँख की भौं से ‘गदा’ बनाई और वाराही देवी को समर्पित की.
(3) श्री ललिता देवी ने ‘गेय चक्र’ नाम का रथ बनाया और मंत्रिणी देवी को दे दिया. जब ये रथ चलता था तो बहुत सुन्दर संगीत पैदा होता था. ‘ललिता सहस्रनाम’ में भी कहा गया है ‘गेय चक्र रथारूढ़ मंत्रिणी परिसेविता’ जिसका अर्थ है की गेयचक्र नाम के रथ में मंत्रिणी देवी (श्यामला देवी) विराजमान रहती हैं.
(4) श्री ललिता देवी ने ‘किरी चक्र; नाम से एक और रथ बनाया और वो वाराही देवी (दंडनाथ देवी) को दे दिया. ललिता सहस्रनाम’ में भी कहा गया है – ‘किरी चक्र रथारूढ़ दंडनाथा पुरस्कृता’ जिसका अर्थ है कि किरी चक्र में वाराही देवी विराजमान रहती हैं.
(5) जब श्री ललिता देवी ने क्रोध से हुंकार भरी तो 6 करोड़ ४० लाख भैरव और इतनी ही योगिनी देवियाँ पैदा हुईं. इनके साथ ही असंख्य शक्ति सेनायें भी उत्पन्न हुईं. ‘ललिता सहस्रनाम’ में उल्लेख है (क) योगिनी गण सविता (ख) महा भैरव पूजिता (ग) शक्ति सेना समन्विता, जिसका अर्थ है कि महा भैरव, योगिनी और शक्ति सेना श्री ललिता देवी की सेवा में तत्पर हैं.
श्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी देवी जिस रथ में विराजमान थीं उसका नाम है ‘श्री चक्र राज’ रथ. इस रथ की विशेषताएं इस प्रकार हैं:
- इस रथ की चौड़ाई लगभग ३६ मील थी.
- इस रथ की ऊंचाई लगभग ९० मील थी.
- इस रथ में चढने के ९ स्थान थे.
- चार वेद इस रथ के चार पहिये थे.
- पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) इस रथ के चार घोड़े थे.
- इस रथ का आकर मेरु पर्वत की तरह था.
- यह रथ ‘तेजस’ नाम के पदार्थ से बना था.
- इस रथ के शीर्ष पर ‘परम आनंद’ रुपी झंडा लहरा रहा था.
- रथ पर स्थापित नौंवा तथा सबसे ऊँचा स्थान ‘बिंदु पीठ’ कहलाता था जिसपे स्वयं श्री ललिता देवी विराजमान होती थीं.
इस तरह भंडासुर और उसकी सेना से लड़ने के लिए श्री ललिता देवी और उनकी सेना तैयार थी.
श्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी देवी के पीछे पीछे ‘सम्पत्करी देवी’ अपने विशालकाय हाथियों की सेना के साथ थीं. वो स्वयं जिस हाथी पर विराजमान थीं उसका नाम था – रणकोलाहलम.
अश्वारूढा देवी अपने करोड़ों घोड़ों की सेना के साथ श्री ललिता देवी के आगे आगे चल रही थीं. वो जिस घोड़े पर विराजमान थीं उसका नाम था – अपराजिता.
श्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी देवी की सेना की सेनापति श्री वाराही देवी (दंडनाथ देवी) इस सम्पूर्ण सेना का प्रतिनिधित्व करती हुई बढ़ रही थी. हर तरफ ढोल की गर्जना हो रही थी. अपने किरी चक्र नाम के रथ से उतर कर श्री वाराही देवी अपने शेर के ऊपर विराजमान हुई. इस शेर का नाम था – वज्रघोषम. अब सेना ने आगे बढ़ना शुरू किया और उनके सिपाहियों ने उन्हें १२ नामों से गुणगान किया. इसी प्रकार मंत्रिणी देवी (श्यामला देवी) अपनी सेना के आगे आगे चल रही थी. उनके सैनिक वीणा तथ अन्य मधुर वाद्य यन्त्र बजा रहे थे. वे सब मंत्रिणी देवी का गुणगान १६ अलग अलग नामों से कर रहे थे.
मंत्रिणी देवी के हाथ में बैठी चिड़िया से ‘धनुर्वेद’ नाम के देवता उत्पन्न हुए जिनके पास ‘चित्रजीवम’ नाम का अद्भुत धनुष था. उन्होंने ये धनुष श्री ललिता देवी को भेंट करते हुए कहा की इसके तरकश के तीर कभी ख़त्म नहीं होते अर्थात अक्षय (कभी क्षय न होने वाले) हैं.
श्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी देवी ने युद्ध हेतु चढ़ाई ली. उनके हाथों में गन्ना, धनुष, बाण, भाला, पाश, अंकुश थे और उनकी सेना उनका गुणगान २५ अलग अलग नामों से कर रही थी.