ऋषि अगस्त्य के जीवन से जुड़ी अद्भुत और रहस्यमयी कथाएं

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Table Of Contents
  1. ऋषि अगस्त्य के जन्म से जुड़ी अद्भुत कथा
  2. ऋषि अगस्त्य की शिक्षा
  3. ऋषि अगस्त्य के विवाह से जुड़ी कथाएं
  4. ऋषि अगस्त्य मुनि के साथ विंध्य पर्वत की नम्रता की कथा
  5. ऋषि अगस्त्य की बुद्धिमता द्वारा बहरूपिया राक्षस वतापी का वध
  6. जब ऋषि अगस्त्य मुनि ने सारा समुंदर पी लिया
  7. पुण्यात्मा द्वारा ऋषि अगस्त्य को उपहार में मिली सोने के कड़े की कथा
  8. ऋषि अगस्त्य ने राजा नहुष को श्राप दिया
  9. ऋषि अगस्त्य ने प्रभु श्रीराम की भी मदद की थी
  10. कौन था वह हाथी जिसे मगरमच्छ से बचाने के लिए स्वयं भगवान विष्णु को आना पड़ा
  11. किस कारण से ऋषि अगस्त्य ने थाटका को श्राप दिया
  12. क्यों ऋषि अगस्त्य मुनि ने सबके सामने भगवान विष्णु की मूर्ति को शिवलिंग में परिवर्तित कर दिया था

ऋषि अगस्त्य के जन्म से जुड़ी अद्भुत कथा

एक बार एक समय पर मिथरा (सूर्य) और वरुण (बारिश का देवता) आकाशीय अप्सरा उर्वशी के प्रेम में पड़ गए। सुंदर नर्तकी को देखते ही उनका वीर्य का स्राव हो गया, जिसे एक घड़े में संरक्षित कर लिया गया। इस घड़े में से दो महान ऋषियों का जन्म हुआ – ऋषि अगस्त्य और ऋषि वशिष्ठ। इन दोनों को एक साथ मैत्र वरुण भी कहा जाता है। चूंकि ऋषि अगस्त्य का जन्म एक घड़े से हुआ था, इस कारण इनको कुंभ संम्भव या कुंभ मुनि नाम से भी जाना जाता है। माना जाता है कि कलियुग के शुरू होने से लगभग 4000 वर्ष पूर्व उनका अस्तित्व था और मान्यता यहां तक है कि वे तमिलनाडु में आज भी अपने भक्तों द्वारा वहां जीवित हैं। सिद्ध चिकित्सा में एक अलग ही लोक कथा जो एक अलग कहानी कहती है। इसके अनुसार गुजरात के एक स्थान पर, कलियुग की शुरुआत से लगभग 4573 साल पहले ऋषि अगस्त्य का जन्म हुआ था। उनके पिता भार्गव (सविथ्रू – 14 आदित्यों में से एक) एक महान ज्ञानी थे और उनकी माता इंदुमती पंजाब की सिंधु नदी के तट से थे यह दोनों ही ऋषभ मुनि के पासुपाठ के भक्त थे।

ऋषि अगस्त्य की शिक्षा

ऋषि अगस्त्य अपने समय के बहुत विद्वान संतों में से एक थे। उनके विषय में ज्यादा कुछ तो नहीं पता कि उनके गुरु कौन थे या फिर उन्होंने कहां से शिक्षा पाई, परंतु कई पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि उन्होंने ऋषि हयग्रीव द्वारा शिक्षा दीक्षा ली, जिन्हें भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों में से एक माना जाता है। वास्तव में महान ललिता सहस्त्रनाम स्त्रोत और ललिता त्रिशती को ऋषि हयग्रीव ने देवी ललिता त्रिपुरसुंदरी के आदेश पर ऋषि अगस्त्य को सिखाया था। ऋषि द्रोण जिन्हें पांडवों का गुरु माना जाता है, इन्होंने अपने गुरु अग्नि विसा द्वारा युद्ध कला का जो भी ज्ञान सीखा, वही युद्ध कला का ज्ञान पांडवों को भी सिखाया। ऐसा भी कहा जाता है कि ऋषि अग्नि लिसा ने युद्ध कला का यह ज्ञान ऋषि अगस्त्य से सीखा था। ऋषि अगस्त्य वह थे जिन्हें तमिल भाषा के व्याकरण की पहली पुस्तक लिखने का श्रेय दिया जाता है। उन्हें तमिलनाडु में चिकित्सा की “सीधा प्रणाली” को खोजने और उसे लोकप्रिय बनाने का श्रेय भी दिया गया है। इतना ही नहीं तमिलनाडु के नाड़ी ज्योतिष का संस्थापक भी ऋषि अगस्त्य को ही माना जाता है। हालांकि केरल वासियों का यह भी दावा है कि वह महान पुरुष ऋषि अगस्त्य ही थे, जिन्होंने उन्हें कलारी पित्तु की मार्शल आर्ट सिखाई।

ऋषि अगस्त्य के विवाह से जुड़ी कथाएं

एक दिन ऋषि अगस्त्य जंगल में यात्रा कर रहे थे और उनके पितर देवता (पितर) जंगल के पेड़ों पर उलटे लटके हुए थे। जब उन्होंने उनसे पूछा कि इस प्रकार क्यों लटके हुए हैं? ऐसा दुर्भाग्य उनके पास क्यों आया? तो उनके  पितर देवता (पितर) ने उत्तर दिया “चूंकि ऋषि अगस्त्य का कोई पुत्र नहीं है, इसी कारण वह इस भयानक कष्ट भोगने के लिए मजबूर हैं।” यह सुनकर ऋषि अगस्त्य ने उनसे वादा किया कि वह जल्द ही विवाह कर लेंगे। उन्होंने धरती पर मौजूद उन सभी चीजों को इकट्ठा किया जो एक अच्छे इंसान में पाई जाती हैं और एक कन्या का निर्माण किया। उस समय विदर्भ के राजा संतान प्राप्त करने के लिए बहुत तपस्या एवं जप-तप कर रहे थे। ऋषि अगस्त्य उनके पास पहुंचे और अपने द्वारा बनाई गई उस कन्या को राजा को आशीर्वाद स्वरुप दे दी। उस कन्या का नाम लोपमुद्रा रखा गया, साथ ही उस कन्या का लालन-पालन राजसी वैभव और ऐश्वर्य के बीच किया गया। जब कन्या विवाह योग्य आयु की हुई, तो ऋषि अगस्त्य वहां पहुंचे और उन्होंने राजा विदर्भ से उस कन्या से विवाह करने की इच्छा जताई। यद्यपि राजा विदर्भ ऋषि से बहुत डरते थे, परंतु फिर भी उन्होंने ऋषि को संकेत दिया कि वह अपनी पुत्री का विवाह उनसे नहीं करना चाहते। परन्तु इधर लोपमुद्रा ने अपने पिता से कहा कि वह ऋषि अगस्त्य से ही विवाह करना चाहती हैं। पश्चात राजा ने लोपमुद्रा का विवाह ऋषि अगस्त्य से करवा दिया। चूंकि ऋषि अगस्त्य पहाड़ों, जंगलों और कटीले रास्तों की यात्रा करते थे और वे नहीं चाहते थे कि उनकी पत्नी इस कष्ट को सहन करे, इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी को एक सूक्ष्म रूप देकर, उन्हें एक घड़े में रख लिया और वे जहां भी जाते अपने साथ उस घड़े को ले जाते थे। भगवान शिव की इच्छा के कारण ऋषि अगस्त ने दक्षिण की यात्रा की और वहीं बस गए। हालांकि यह यात्रा बहुत ही दुर्गंम थी, परंतु उन्होंने भगवान शिव का आदेश मानकर इसे पूरा किया। भगवान शिव ने ऋषि अगस्त्य को वरदान दिया था कि उनके घड़े में हमेशा पानी भरा रहेगा। उस समय दक्षिण भारत का यह क्षेत्र बेहद शुष्क था, जहां कभी-कभी पानी बरसता था। एक बार जब ऋषि अगस्त्य स्नान करने गए, तो भगवान गणेश ने एक कौए का रूप लेकर ऋषि अगस्त्य के घड़े को पलट दिया। घड़े के अंदर ऋषि की पत्नी लोपमुद्रा थीं, जो घड़े के पलटने के कारण बारहमासी पानी के साथ शक्तिशाली कावेरी नदी में बदल गईं। यह नदी बारहमासी है तथा इस नदी का पानी भगवान शिव के आशीर्वाद के कारण कभी नहीं सूख सकता। इनकी पत्नी लोप मुद्रा का नाम “कावेरी” इसलिए पड़ा क्योंकि उस घड़े का जल एक कौवे द्वारा फैलाया गया, यहां कावेरी का शाब्दिक अर्थ “का” अर्थात “कौवा” और “विरी” अर्थात “फैलाना” है।

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दक्षिण भारत में ऋषि अगस्त्य के विवाह से जुड़ी एक अन्य कहानी भी प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि कूर्ग की ब्रह्म गिरि पर्वत श्रृंखला के पास कावेरा नामक एक शिकारी राजा निवास करता था। जीवन में उसका एकमात्र उद्देश्य अपने देश का भला करना था। उसने भगवान शिव को प्रसन्न के लिए बहुत तपस्या की। अंत में भगवान शिव उससे प्रसन्न हुए और उसे एक पुत्री का वरदान दिया, जिसका नाम कावेरी रखा गया। इसके साथ ही उन्होंने उससे यह भी कहा कि इस पुत्री के माध्यम से उसकी हर इच्छा पूरी होगी। कुछ समय पश्चात ऋषि अगस्त्य का ब्रम्हगिरी पर्वतों पर भ्रमण का संजोग बना। कावेरा ने अपनी पुत्री का विवाह ऋषि अगस्त्य से करने की इच्छा जताई। ऋषि अगस्त्य और कावेरी ने एक सुखी दांपत्य जीवन का सुख भोगा। लेकिन उस समय सुरपद्मा नामक असुर के अत्याचारी शासन के कारण संपूर्ण दक्षिण भारत एक भयानक अकाल की चपेट में था। एक दिन जब ऋषि अगस्त्य स्नान करने जा रहे थे, उस समय कावेरी की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। इसलिए उन्होंने कावेरी को पानी में बदल दिया और उनको अपने पवित्र घड़े में रख दिया। यह समय की बात थी कि भगवान गणेश ने एक कौवे का रूप धारण किया और घड़े को उलट दिया। घड़े से जब पानी निकला तो उस जल ने उसने एक धारा का रूप ले लिया और यह देखते ही देखते कावेरी नदी में परिवर्तित हों गईं, यह एक बहुत विशाल बारहमासी नदी बन गई।

ऋषि अगस्त्य मुनि के साथ विंध्य पर्वत की नम्रता की कथा

भारत का सबसे बड़ा पर्वत हमेशा से महा मेरु रहा है, जो सचमुच आसमान को छूता हुआ प्रतीत होता था। सूर्य और चंद्रमा उस पर्वत की परिक्रमा करते थे। विंध्य पर्वतमाला, जो भारत के मध्य में है, उसको मेरु की इस विशालता और सम्मान को देखकर जल बहुत जलन हुई और उसने लंबा होना प्रारंभ कर दिया। लंबा होते-होते, एक समय आया जब सूर्य और चंद्रमा दक्षिण की ओर यात्रा करने में असक्षम हो गए। जिसे देख देवराज इंद्र ने ऋषि अगस्त्य मुनि से प्रार्थना की कि वह कोई उपाय करें। यह वह समय था जब भगवान शिव ने देवी पार्वती से शादी करने का निश्चय किया था। संपूर्ण विश्व भगवान शिव के विवाह में शामिल होने के लिए हिमालय की यात्रा करना प्रारंभ कर चुका था। इसके कारण पृथ्वी के उत्तर के वार्डों को झुकाव शुरू हो गया। भगवान शिव ने इस स्थिति को संतुलित करने हेतु ऋषि अगस्त्य से दक्षिण की ओर यात्रा करने का अनुरोध किया। जिससे कि उनकी तपस्या से पृथ्वी का संतुलन बना रहे। अनिच्छा से ही सही, परंतु ऋषि अगस्त्य ने भगवान शिव की इच्छा का मान रखते हुए दक्षिण की ओर यात्रा प्रारंभ कर दी। उनके रास्ते में विंध्य पर्वत आया, जिसे पार करना अनिवार्य था, परंतु वह बहुत लंबा हो चुका था। ऋषि अगस्त्य ने विंध्य पर्वत से छोटा होने का अनुरोध किया, ताकि वह इसे आसानी से पार कर सकें। विंध्य पर्वत ने ऋषि की प्रार्थना को स्वीकार किया और तत्क्षण छोटा हो गया। परंतु ऋषि अगस्त्य ने विंध्य पर्वत से कहा कि तब तक छोटा रहे जब तक कि वह वापस उत्तर की तरफ ना चले जाएं और विंध्य पर्वत ने उनकी इस प्रार्थना को भी स्वीकार कर लिया। लेकिन इसके बाद ऋषि अगस्त्य भारत के दक्षिण में ही बस गए और कभी वापस लौटे ही नहीं।

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ऋषि अगस्त्य की बुद्धिमता द्वारा बहरूपिया राक्षस वतापी का वध

विवाह के उपरांत लोपामुद्रा चाहती थी, कि ऋषि अगस्त्य राजसी पोषाक, रत्न आभूषणों के साथ धारण करें। चूंकि ऋषि अगस्त्य उनसे बहुत प्रेम करते थे, इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी की इस इच्छा को पूरा करने का विचार किया। परंतु उनके पास अच्छे कपड़े और आभूषण खरीदने के लिए धन नहीं था। अतः ऋषि अगस्त्य ने श्रीथर्वा नामक राजा से संपर्क किया। दुर्भाग्य से उस समय राजा श्रीथर्वा के पास साझा करने के लिए पर्याप्त धन आभूषण नहीं थे और इसी कारण ऋषि अगस्त्य ने राजा ब्रैधनासवारा और एक अमीर व्यक्ति त्रिसूरसु से संपर्क किया, परंतु दोनों ने ही ऋषि अगस्त्य द्वारा आवश्यक धन और आभूषण का भुगतान करने में अपनी असमर्थता दिखाई। इसके उपरांत ऋषि अगस्त्य ने एक बहुत अमीर राक्षस जिसका नाम इलवाला था, के पास गए। इलावाला अपने भाई वतापी के साथ मणिमहलपट्टन में रह रहा था। एक बार इलवाला ने एक ब्राह्मण ऋषि से संपर्क किया और उसने उन्हे एक बच्चे का आशीर्वाद दिया। चूँकि ब्राह्मण ऋषि ने इस आशीर्वाद को ग्रहण करने से इनकार कर दिया था इसी कारण इलवाला और वतापी ब्राह्मणों पर बहुत क्रोधित रहते थे। जब भी कोई ब्राह्मण उनके घर आता था। इलवाला उन्हें दावत देता। वतापी भेड़ का एक रूप लेता और इस भेड़ को इलवाला द्वारा काटकर पका कर  ब्राह्मणों को परोसा जाता था। एक बार जब ब्राह्मण अपना भोजन कर लेते, तब इलवाला, वातापी को बाहर आने के लिए कहता। तब वातापी ब्राह्मण का पेट को फाड़कर बाहर निकलता था। ऋषि अगस्त्य से भेंट होने पर इलवाला ने यही नाटक दोहराया, परंतु इस बार जब इलवाला ने वतापी को बुलाया, तो ऋषि अगस्त्य ने अपने पेट से कहा हे इलवाला! वातापी तो पच गया। इलावला ने ऋषि अगस्त्य को पर्याप्त धन दे दिया।

जब ऋषि अगस्त्य मुनि ने सारा समुंदर पी लिया

एक समय जब वृत्रासुर देवताओं को बहुत परेशान कर रहा था तब देवेंद्र ने उसके विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया और छल से उसे मार डाला। परंतु वृत्रासुर के दो सेनापति काल-केय बच गए। इंद्र देव ने अग्नि देव और वायु देव से उनका पीछा करके उन दोनों को मारने के का आदेश दिया परंतु काल-केय समुंदर की गहराई में चले गए और वहां जाकर छुप गए। हर दिन सूर्यास्त के बाद वो दोनों बाहर निकलते और ऋषियों, देवताओं और महान पुरुषों को परेशान करके सूर्योदय होने से पूर्व वापस समंदर की गहराइयों के अंदर छुप जाते। देवता मदद लेने के लिए भगवान विष्णु के पास पहुंचे।भगवान विष्णु ने उन्हें बताया कि उन दोनों को पकड़ने का केवल एकमात्र तरीका है कि समुद्र को सुखा दिया जाए और यह कार्य केवल एक ही महापुरुष कर सकतें हैं और वह ऋषि अगस्त्य मुनि। भगवान विष्णु की बात सुनकर देवता मदद लेने के लिए ऋषि अगस्त्य मुनि के पास पहुंचे और ऋषि अगस्त्य ने बड़ी सहजता से सहमति व्यक्त की और समुद्र का सारा पानी पी लिया और समुंद्र को सुखा दिया। इससे काल-केय दोनों ही मारे गए। परंतु समुद्र का जल सूख जाने की वजह से स्थिति अकाल की ओर बढ़ गई। देवताओं ने इस विषय में भगवान विष्णु से पूछा कि अब क्या किया जाए, तो भगवान विष्णु ने उन्हें बताया कि “जब राजा भागीरथ धरती पर जन्म लेंगे, तब वे गंगा जी को स्वर्ग से धरती पर लाएंगे और वही समुद्र के जल को भर देंगीं।

पुण्यात्मा द्वारा ऋषि अगस्त्य को उपहार में मिली सोने के कड़े की कथा

एक बार ऋषि अगस्त्य एक बहुत बड़े वीरान जंगल में जा पहुँचे। जब वह जंगल की बीच में पहुंचे, तो वहां उन्होंने कुछ गंधर्वों और अप्सराओं को नाचते हुए देखा। तभी अचानक उनके बीच में से एक महान आत्मा निकली और उसने वहां पड़ी हुई लाश को खा लिया। उसके बाद उस आत्मा ने ऋषि अगस्त्य को प्रणाम किया और उनके चारों ओर परिक्रमा की और फिर अपना परिचय देते हुए बताया – “मैं त्रेता युग से संबंधित महान राजा विर्दभ का पुत्र हूं, मेरा नाम श्वेत था। मैंने लंबे समय तक अपने देश पर शासन किया और बिना किसी दान दिए इस जंगल में आया और तप किया। यहां मैंने अपने शरीर को छोड़ दिया और स्वर्ग में जा पहुंचा। लेकिन स्वर्ग में पहुंचने पर मेरे अंदर मुझे भूख की पीड़ा महसूस होने लगी। जब मैं भगवान ब्रह्मा के पास अपनी इस पीड़ा को लेकर इसका कारण और निवारण जानने को पहुंचा तो उन्होंने मुझसे कहा कि ऐसा इसलिए है क्योंकि पृथ्वी पर रहते हुए मैंने कभी किसी को कुछ भी दान में नहीं दिया। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं रोज इस जंगल का दौरा करूं और अपनी भूख को शांत करने के लिए वहां पड़ी लाश को खा लूं। उन्होंने मुझे यह भी बताया था, कि जब मैं 10,000 लाशें खा लूंगा, तो मुझे आप के दर्शन होंगे और आपके आशीर्वाद से मुझे इस अशांत भूख से छुटकारा मिल जाएगा।” यह सुनकर के ऋषि अगस्त्य ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उस आत्मा को उसकी अशांत भूख से मुक्ति दिलवाई। जिसके कारण उस पुण्यात ने उनसे प्रसन्न होकर के उन्हें एक सुनहरी चूड़ी उपहार स्वरूप दी। ऋषि अगस्त्य ने उन्हें आशीर्वाद दिया और चले गए।

ऋषि अगस्त्य ने राजा नहुष को श्राप दिया

देवेंद्र ने छल से वृत्रासुर का वध किया। इस वजह से उन्हें एक श्राप ने घेर लिया, जिसके कारण उन्हें पृथ्वी में जाकर छिपना पड़ा। इस समय नहुष नामक एक राजा ने सौ अश्वमेध यज्ञ को पूरा किया। जिस वजह से उसे देवराज इंद्र का पद मिल गया। जब नहुष को जब यह पद प्राप्त हो गया तो उसने देवताओं के ऊपर शासन कर हर किसी के साथ दुर्व्यवहार करना शुरू दिया। नहुष चाहता था कि देवराज इंद्र की पत्नी देवी सचि उसके साथ उसकी पत्नी के रूप में रहें। परंतु सचि देवी ने इस अधर्म को करने से पूर्ण रूप से मना कर दिया और बृहस्पति देव से सुरक्षा मांगी। नहुष को जब यह पता चला तो उसने बृहस्पति देव को बुलाया और उन्हें धमकाया। तब बृहस्पति देव ने सचि देवी से कहा कि वह असहाय हैं परन्तु साथ ही उन्होंने उन्हें उनके पति इंद्र का पता लगाने की सलाह दी। सचि देवी ने नहुष से कहा कि वह उसकी इच्छा का पालन करने को तैयार हैं लेकिन इससे पहले वह अपने पति को देखना चाहतीं हैं, जो कि पृथ्वी पर कहीं छिपे हुए हैं। नहुष इसके लिए तुरंत तैयार हो गया। देवी पार्वती की मदद से सचि देवी को इंद्रदेव का पता चल गया। इंद्रदेव ने कहा जब तक वह अपने पाप से मुक्त नहीं हो जाते वापस नहीं आ सकते। लेकिन उन्होंने सचि देवी से कहा कि वह नहुष से छुटकारा पाने के लिए एक चाल चलें। सचि देवी ने वापस जाकर नहुष से कहा कि वह उसकी बात को मान लेंगीं बशर्ते कि वह सप्त ऋषियों (सात बहुत महान ऋषियों) द्वारा उठाई गई पालकी में उनके स्थान तक आए। सप्त ऋषियों में ऋषि अगस्त्य भी शामिल थे। चूंकि नहुष देवों का राजा था, इसी कारण उसके आदेश का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य था। चूंकि ऋषि अगस्त्य कद में छोटे और स्वास्थ्य में मोटे थे, अतः वह तेजी से नहीं चल पा रहे थे। पालकी भी ऋषि अगस्त्य के कद में छोटे होने के कारण अंत में झुकी हुई थी। परंतु नहुष को सचि देवी के पास पहुंचने की जल्दी थी। इसलिए उसने सभी को आदेश दिया सर्पा, सर्पा (अर्थात तेज) इससे ऋषि अगस्त्य नाराज हो गए और उन्होंने नहुष को श्राप दे दिया कि वह सचमुच का सर्पा (सांप) बन जाएगा। उसके बाद नहुष को अपनी गलती का एहसास हुआ और वह ऋषि अगस्त्य से क्षमा मांगने लगा। अंततः ऋषि अगस्त्य ने उससे कहा उसको उस के वंशज पांडवों को जंगल में देखने से मोक्ष की प्राप्ति होगी।

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ऋषि अगस्त्य ने प्रभु श्रीराम की भी मदद की थी

वनवास के समय भगवान श्री राम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ ऋषि अगस्त्य के आश्रम में गए थे। वहां जाकर उन्होंने कुछ समय के लिए विश्राम भी किया था। उन्होंने ऋषि अगस्त्य से सलाह की, कि उन्हें जंगलों में किस तरफ जाना चाहिए। रावण से लंका के युद्ध के दौरान भगवान राम ने लंबे समय तक रावण के साथ युद्ध किया और थक गए क्योंकि वे रावण को मारने में सक्षम नहीं हो पा रहे थे। उस समय देवों ने ऋषि अगस्त्य को सलाह देने के लिए भगवान राम के पास भेजा। ऋषि अगस्त्य ने भगवान राम से कहा कि उन्हें भगवान सूर्य के आदित्यहृदय स्त्रोत का पाठ करना चाहिए। इससे उन्हें रावण को मारने की क्षमता प्राप्त होगी।

कौन था वह हाथी जिसे मगरमच्छ से बचाने के लिए स्वयं भगवान विष्णु को आना पड़ा

पांड्य वंश में इंद्र ध्यानुम्न नामक एक बहुत बड़े राजा थे। यह राजा भगवान विष्णु का बहुत बड़े भक्त थे। एक बार जब ऋषि अगस्त्य उनसे मिलने आए, तो राजा भगवान विष्णु की भक्ति में इतने डूबे हुए थे कि उन्होंने ऋषि अगस्त्य को ना देखा और ना ही उनका आतिथ्य किया। इस पर क्रोधित होकर ऋषि अगस्त्य ने उन्हें एक हजार वर्षों तक की अवधि के लिए हाथी बनने का श्राप दे दिया। इस हाथी को गजेंद्र कहा जाता था। इस समय देवला नामक एक अन्य ऋषि ने हुंड नामक एक गंधर्व को मगरमच्छ बनने का श्राप दिया, क्योंकि उसने उनकी तपस्या को भंग कर दिया था। एक बार गजेंद्र हाथी उस नदी में गया जिसमें हुंड मगरमच्छ रह रहा था। मगरमच्छ ने हाथी के पैर पकड़ लिए। बहुत लंबे समय प्रयास करने पर भी जब गजेंद्र अपना पैर नहीं छुड़ा पाया तो उसने भगवान नारायण को बुलाया, जिन्होंने मगरमच्छ को मार दिया और उन्होंने इंद्र ध्यानुम को मिले श्राप को भी हटा दिया और उसे मोक्ष दिया।

किस कारण से ऋषि अगस्त्य ने थाटका को श्राप दिया

थाटका, सुकेतु नामक एक यक्ष की पुत्री थी। थाटका, भगवान ब्रह्मा के आशीर्वाद के कारण सुकेतु के पास पैदा हुई थी। थाटका के पास 1000 हाथियों की ताकत थी। उसने सुंडा नामक एक अन्य यक्ष से विवाह किया और उनसे एक पुत्र मरीच का जन्म हुआ। ऋषि अगस्त्य के साथ झगड़े में सुंडा मारा गया था। जिस कारण थाटका और मरीच बहुत अधिक क्रोधित हो गए और दोनों ने ऋषि अगस्त्य मुनि की कुटिया पर हमला कर दिया। ऋषि अगस्त्य मुनि ने उन्हें श्राप दिया और वे राक्षस बन गए। बाद में वे दोनों भगवान राम द्वारा मारे गए और मोक्ष प्राप्त किया।

क्यों ऋषि अगस्त्य मुनि ने सबके सामने भगवान विष्णु की मूर्ति को शिवलिंग में परिवर्तित कर दिया था

ऋषि अगस्त्य मुनि जब भारत के उत्तरी हिस्सों से आए तो वह शिव भक्त थे। वह अपनी पत्नी के साथ तमिलनाडु के कुटरलम नामक स्थान पर पहुंचे। कुटरलम में भगवान विष्णु का एक मंदिर था। ऋषि अगस्त्य मुनि के शिव भक्त होने के कारण उनको मंदिर में प्रवेश से मना कर दिया गया। ऋषि अगस्त्य मुनि ने अपनी चमत्कारी शक्तियों द्वारा मंदिर में उपस्थित भगवान विष्णु की मूर्ति को सबके सामने शिवलिंग में परिवर्तित कर दिया और लोगों को दिखाया कि भगवान शिव और भगवान विष्णु एक ही हैं।

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