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तारा माँ के उपासक तांत्रिक “बामाखेपा” की साधना एवं शक्तियां

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“बामाखेपा” के नाम से जुड़ा रहस्य

यद्यपि बामाखेपा, विशेष रुप से देवी काली की पूजा करने के लिए नहीं जाने जाते, परंतु वह माता के महान उपासक थे और इनका जिक्र श्री रामकृष्ण के समकालीन ही किया जाना चाहिए। बामाखेपा का नाम वास्तविक नाम “बामा” था, लेकिन चूंकि उन्होंने अपनी शुरुआती युवा अवस्था से ही सांसारिक मामलों में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं दिखाई, जिस कारण लोग उन्हें पागल कहने लगे और उनके नाम के आगे खेपा (पागल) जोड़ दिया गया। खेपा एक ऐसा शब्द है जिसका इस्तेमाल ज्यादातर तांत्रिक और बऔल द्वारा किया जाता है और इसे सामान्य पागलपन से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। खेपा का अर्थ वास्तव में एक महान आत्मा के तौर पर माना जाता है। बामाखेपा ने माता के तारा रूप की विशेष रुप से पूजा अर्चना की और यह प्रसिद्ध तांत्रिक संत बन गए, जिन्होंने तारापीठ श्मशान घाट पर अपनी साधना का अभ्यास किया। पश्चिम बंगाल के तारापीठ में जाना मुश्किल है और इसलिए कुछ ही पश्चिमी सभ्यता के लोगों ने इस प्राचीन आध्यात्मिक केंद्र का दौरा किया है। तारापीठ, बीरभूम जिले में स्थित है, जो बऔल के घर और प्रसिद्ध वैष्णव और शाक्त संतों का जन्मस्थान के रूप में जाना जाता है।

बामाखेपा का जन्म एवं प्रारंभिक जीवन तथा आध्यात्मिक भावना का विकास

बामाखेपा का जन्म 1837, श्री रामकृष्ण के जन्म के एक साल बाद, अल्टा गाँव में तारापीठ के पास हुआ था। हालाँकि उनके माता-पिता गरीब ब्राह्मण थे, लेकिन बामखेपा के पिता सर्वानंद चटर्जी, अपने धर्मपरायण होने के लिए आसपास के क्षेत्र में प्रसिद्ध और सम्मानित व्यक्ति थे और बामाखेपा की माँ राजकुमारी भी इसी कारणवश प्रसिद्ध थीं। बामाखेपा जब भी युवान अवस्था में थे तो उनकी एक अजीबोगरीब आदत थी। रात्रि के समय वह अपने पड़ोसियों के घरों में जाकर उनके घर में रखी देवी देवताओं की तस्वीर चुराकर उन्हें अपने साथ कुछ दूरी पर नदी के तट में ले जाया करते थे। उसके पश्चात उन तस्वीरों की पूरी रात पूजा किया करते थे और सुबह होने पर जब गांव वालों को उनके देवी देवताओं की तस्वीर नहीं मिलती, तो वह तमाशा खड़ा कर देते थे। बामाखेपा को अपराधी के रूप में ऐसे करते हुए पकड़ा गया, उनके माता-पिता ने उन्हें बुरी तरह से डांटा भी, परंतु वह अपनी इस आदत को छुड़ाने और खुद उन छवियों को लेने से रोक नहीं पाए और वह यह कार्य करते रहे। बामाखेपा की शिक्षा कभी उनके साधारण से गांव के छोटे से विद्यालय के आगे कभी बढ़ ही नहीं पाई। उनके घर के हालात भी आर्थिक रूप से इतने अच्छे नहीं थे, कि उनके माता-पिता अपने पुत्र को उच्च शिक्षा और शास्त्रों के अध्ययन के लिए गांव से बाहर भेजते। बामाखेपा बहुत छोटी आयु के थे, जब उनके पिता की मृत्यु हो गई। इसी कारण उनकी मां और विधवा बड़ी बहन, उनकी जिंदगी में वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने उन्हें किसी भी प्रकार का आध्यात्मिक निर्देश दिया था। उन्होंने बामाखेपा को प्राचीन हिंदू धर्म से जुड़ी कहानियां जैसे की रामायण और महाभारत की कथाएं सुनाईं और उनके इन प्रयासों के कारण ही बामाखेपा के जीवन में आध्यात्मिक भावना विकसित हुई। उन्होंने अपनी मां और बहन को खुश करने के लिए कुछ भक्ति गीत भी गाए। समय बीता और धीरे-धीरे आर्थिक परेशानियां बढ़ने लगी। इनकी मां ने इनको उनके चाचा के घर उनके भाई के पास रहने के लिए भेजा। इनके चाचा ने इनको पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति सक्रिय बनाने के अथक प्रयास किए, जिसके लिए उन्होंने, उन्हें उनकी गायों की देखभाल के लिए भेजा। लेकिन बामाखेपा, इस सरल से कार्य को भी करने में पूरी तरह नाकामयाब हो गए, जिसे देखकर इनके चाचा बहुत निराश हुए और उन्होंने दुखी होकर बामाखेपा को वापस उनकी मां के पास उनके घर भेज दिया।

बामाखेपा का “मां तारा” के प्रति समर्पण का पहला क्षण

बामाखेपा किसी भी प्रकार के कार्य को करने में पूरी तरह अक्षम सिद्ध होते जा रहे थे, वह सिर्फ एक ही कार्य करना चाहते थे, मां तारा की पूजा। एक बार उन्होंने लाल रंग का गुड़हल का फूल देखा, तो उन्होंने सोचा कि यह “देवी तारा मां” हैं और उनके मुंह से निकला “मां तारा”, इसके बाद अपने आसपास के वातावरण के प्रति पूरी तरह से बेसुध हो गए। इसके पश्चात उनकी माता भी यह मानने पर मजबूर हो गई उनका पुत्र पागल हो चुका है और उनको किसी भी खतरे से बचाने के लिए उनकी मां ने उन्हें घर के अंदर ही बंद कर दिया। परंतु बामाखेपा को जैसे ही मौका मिला, वह घर से भाग गए। द्वारका नदी पार करके वे नदी के दूसरी तरफ पहुंचे और वहां से उन्होंने पवित्र तारापीठ की यात्रा पैदल चलते-चलते पूरी की।

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बामाखेपा के पहले गुरु एवं तांत्रिक साधना का प्रारंभ

उन्होंने ख्याति प्राप्त तांत्रिक कैलासपति बाबा के विषय में बहुत सुना था, जिन्हें वास्तविक में आत्मा माना जाता था। बामाखेपा सीधा उनकी कुटिया में चले गए। बामाखेपा की आध्यात्मिक प्राप्ति की क्षमता को पहचानते हुए बाबा कैलासपति ने उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। इसके बाद बामाखेपा ने कैलासपति बाबा के मार्गदर्शन में तांत्रिक साधना का अभ्यास पूरी गंभीरता के साथ शुरू किया। इस बीच, बामाखेपा की माँ अपने पुत्र के विषय में बहुत चिंतित थीं और बहुत प्रयास करने के बाद उन्हें कैलासपति बाबा की कुटिया के विषय में पता चला और वह उनसे मिलने के लिए वहां जा पहुंचीं। जब उन्हें एहसास हुआ कि उनका पुत्र उनके साथ घर वापस आने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं होगा, तो उन्होंने अपने परिवार के एक सदस्य की मदद लेने को सोचा, जो उस समय शहर के बहुत नामी-गिरामी व्यक्तियों में से एक थे। इनका नाम दुर्गा चरण सरकार था, यह उस समय नटौर के महाराजा का एक एजेंट थे और रिश्ते में बामाखेपा के चाचा लगते थे। तारापीठ में इनके प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए बामाखेपा को तारापीठ मंदिर की सेवा के लिए पुष्प संग्रह की नौकरी में दिलवा दी। लेकिन बामाखेपा काम करने के लिए तो बने ही नहीं थे और वह यह सरल सा कार्य भी नहीं कर सके। फूलों को चुनने के बजाए, वह देवी मां के विचारों में ही रहा करते थे। अपनी शारीरिक सुख सुविधाओं को भूलकर, दिन हो या रात, गर्मी हो या सर्दी, बारिश हो या धूप, इन सब से अनजान रहते थे। वह गांजा पीते थे और सांप, कुत्ते, बिल्ली और गीदड़ों से घिरे तारापीठ श्मशान घाट में रहा करते थे।

बामाखेपा की माता का निधन एवं दाह संस्कार के समय हुई दैवीय कृपा

हालाँकि बामाखेपा को लगने लगा कि वह अपनी माँ के लिए परेशानी के सिवा और कुछ नहीं हैं, इसी कारण बामाखेपा ने लंबे समय तक अपनी मां से संपर्क नहीं किया, लेकिन उनके मन में अपनी मां के लिए बहुत प्यार और श्रद्धा थी। जब तारापीठ यह खबर पहुंची कि उनकी मां की मृत्यु हो चुकी है और उनके मृत शरीर को बाढ़ की अधिकता के कारण तारापीठ श्मशान घाट नहीं लाया जा सकता। बामाखेपा ने बाढ़ से उफनती नदी को तैरकर पार किया और अपनी मां के मृत शरीर को अपने हाथों में लेकर तारापीठ वापस लौटे और अपने भाई रामचरण से अपनी माता के अंतिम संस्कार की क्रिया करने के लिए कहा। परंतु इतना गरीब परिवार अंतिम क्रिया के लिए धनराशि का भुगतान कैसे करेगा? ईश्वरीय कृपा से, पैसा और अच्छा भोजन सभी मेहमानों को खिलाने के लिए अपने आप व्यवस्थित हो गया। तारापीठ में लोग आज भी आकाश में दिखाई देने वाले काले बादलों के बारे में कहानी बताते हैं कि बामाखेपा की माँ का शरीर जला हुआ था। हालांकि अचानक हुई भारी बारिश के कारण तारापीठ में बाढ़ आ गई, परंतु अंतिम संस्कार के मौके पर एक भी बूंद नहीं गिरी।

बामाखेपा की विचित्र आदतें

जब बामाखेपा के आध्यात्मिक गुरुओं ने देखा कि उनके शिष्य ने ज्ञान में पूर्णता प्राप्त कर ली है, तो कैलासपति बाबा और मोक्षानंद ने उन्हें तारापीठ के आध्यात्मिक नेता के रूप में स्थापित किया और स्वयं वहां से चले गए। परंतु यह सम्मान भी बामाखेपा को सभी प्रकार के बंधन में बांधने में असफल रहा। उन्होंने मंदिर के नियमों का पालन करने की उपेक्षा की और सामाजिक नियमों का पालन भी नहीं किया। कभी-कभी वह आवारा कुत्तों के साथ बैठकर उनके साथ अपना भोजन साझा करते थे, तो कभी पवित्र मंदिरों के स्थानों में जाकर प्राकृतिक पुकार को कर देते थे। उनके दिमाग में किसी भी प्रकार की पवित्रता या अशुद्धता का विचार प्रवेश ही नहीं कर सका। उन्होंने लंबे समय तक इसी प्रकार की दृष्टि का उपयोग किया। बामाखेपा को पूरी तरह से नग्न घूमने की आदत थी। एक दिन किसी ने उनसे पूछा, “तुम नग्न क्यों हो? “बामाखेपा ने उत्तर दिया, “मेरे पिता (शिव) नग्न हैं; मेरी माँ (तारा) भी नग्न है। इसलिए, मैं इसका अभ्यास कर रहा हूं। इसी कारण मैं समाज के अंदर नहीं रहता, मैं अपनी मां के साथ श्मशान भूमि अर्थात श्मशान घाट में ही रहता हूं। इसी कारण मुझे कोई डर या शर्म नहीं है!” अपने गुरु कैलासपति बाबा और तांत्रिक गुरु मोक्षानंद के मार्गदर्शन में, बामाखेपा ने सभी प्रकार के प्रमुख तांत्रिक संस्कारों और साधना को शास्त्रों के अनुसार पूरी तरह सीखा। यह दिलचस्प बात थी कि श्री रामकृष्ण के भांति ही बामाखेपा ने भी तंत्र साधना की, परंतु पूरी तरह से ब्रह्मचारी रहते हुए। श्री रामकृष्ण के समान ही, बामाखेपा ने भी महिलाओं को माँ समान रूप में देखा। एक दिन, एक सुंदर, युवा महिला ने खुद को भैरवी के रूप में प्रस्तुत करके बामाखेपा को लुभाने की कोशिश की। परंतु उसके अथक प्रयास करने के बावजूद भी वह बामाखेपा में किसी भी प्रकार के“पुरुष चिन्ह”को प्राप्त करने में असफल रही। अचानक, बामाखेपा ने रोते हुए “मां तारा” कहा और उस स्त्री के स्तन की तरफ देखा। उस स्त्री के स्तन से खून बहने लगा और वह बेहोश हो गई।

मंदिर के पुजारियों ने बामाखेपा को भोजन देने से किया इनकार और मां तारा का क्रोध

एक बार मंदिर के पुजारियों ने बामाखेपा को मंदिर का प्रसाद, देवी मां तारा को चढ़ाने से पहले, खाते हुए पकड़ लिया। वे सभी पंडित उनसे इतना अधिक क्रोधित हुए कि उन्होंने उनका भोजन देना बंद कर दिया। इस घटना के 4 दिन बाद नटौरी महारानी ने एक अजीब सपना देखा। मां तारा उनके सपने में आईं और उन्होंने कहा कि “मैं यह स्थान छोड़ने को सोच रही हूं, क्योंकि मेरे सबसे प्रिय पुत्र बामाखेपा ने कुछ नहीं खाया है। पुजारियों ने उसे मारा पीटा और उससे भोजन भी छीन लिया। यदि मेरे पुत्र को मुझसे पहले खाना नहीं दिया गया तो उसकी मां होने के नाते मैं कैसे खा सकती हूं?” जब महारानी नींद से जागीं तो उन्होंने तुरंत आदेश पारित किया, कि मां तारा के भोग से पहले बामाखेपा को भोजन करवाया जाएगा। इसके पश्चात किसी ने भी बामाखेपा के कार्यों को बाधित करने की हिम्मत नहीं की।

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बामाखेपा की यौगिक शक्तियों का चमत्कारिक रूप

  • तारापीठ के यह संत बामाखेपा, अपनी यौगिक शक्तियों के कारण बहुत अधिक प्रसिद्ध हो गए थे। लोग दूर-दूर से आते उनके दर्शन को करने के लिए। बामाखेपा ने अपनी मानसिक शक्तियों द्वारा कई बीमार लोगों को बिल्कुल ठीक कर दिया। एक बार एक व्यक्ति मरणासन्न स्थिति में पहुंचा हुआ, व्यक्ति तारापीठ आया और बामाखेपा के प्रसाद (उनका अभिषेक किया हुआ भोजन) को मांगने लगा। बामाखेपा को उस व्यक्ति पर दया आ गई और उन्होंने अपने हाथों से उस व्यक्ति को खाना खिलाया। खाना खाते ही वह व्यक्ति तुरंत चमत्कारिक ढंग से ठीक होकर अपने घर वापस चला गया।
  • तारापीठ में नंदा हांडी नामक एक कोढ़ रोग से पीड़ित, अछूत जाति की स्त्री रहती थी। वह अक्सर बामाखेपा के लिए भोजन बनाकर लाया करती थी, हालांकि बामाखेपा सबसे उच्च जाति के ब्राह्मण थे, परंतु इसके बावजूद वह नंदा हांडी के बनाए हुए भोजन को सहर्ष स्वीकार कर लेते थे। एक दिन उन्होंने नंदा को भोजन के बदले में थोड़ी सी मिट्टी दी और उसे अपने घावों में रगड़ने के लिए कहा। इसके बाद नंदा ने बताया कि उसे इस भयानक कोढ़ से मुक्ति मिल गई उसका कोढ़ पूरी तरह ठीक हो गया।
  • बामाखेपा के विषय में एक और कहानी प्रचलित है, यह कहानी तपेदिक रोग से मरने वाले एक व्यक्ति के विषय में हैं, जो संत के पास उनका आशीर्वाद लेने के लिए स्ट्रेचर में आया था। आदमी को आशीर्वाद देने के बजाय बामाखेपा ने उसे गर्दन से पकड़ लिया और गुस्से में आकर उस आदमी पर चिल्लाते हुए बोले “अब क्या तुम कोई और पाप करोगे?”, आश्चर्यजनक रूप से, बामाखेपा के रुखे इलाज के बावजूद वह आदमी स्ट्रेचर से उतरा और खाने के लिए कुछ भोजन मांगने लगा, उसने भोजन किया, पानी पिया और फिर अपने पैरों पर चल कर, अपने घर वापस चला गया और पहले से अधिक स्वस्थ और समझदार हो गया।
  • बालग्राम में रहने वाला एक व्यक्ति जिसका नाम निमाई था, हर्निया की समस्या से बहुत ज्यादा पीड़ित था। उसे इतना दर्द होता था कि वह अपने परिवार का भरण पोषण तक नहीं कर पाता था। यह सोच कर कि वह किसी भी काम का नहीं स्वयं के लिए भी कुछ नहीं कर पाता, उसने आत्महत्या करने की सोची। उसने हाथ में रस्सी लेकर खुद को फांसी लगाने के उद्देश्य से काली अंधेरी रात में तारापीठ आ गया। अचानक उसने एक भयानक आवाज सुनी। यह आवाज तो बामाखेपा की थी, जो मां तारा को पुकार रहे थे। निमाई आत्महत्या करने से बहुत ज्यादा डर गया और वह यह नहीं समझ पा रहा था कि खुद के साथ क्या करें, अतः वह बामाखेपा के पास तारापीठ में ही रहने लगा। एक दिन निमाई ने बामखेपा को नाराज कर दिया क्योंकि उसने बामखेपा की पवित्र धूनी पर अपना पाइप जला दिया। गुस्से में आकर संत ने निमाई (हर्निया के रोगी) के पेट के निचले हिस्से में लात मारी और निमाई बेहोश हो गया। लेकिन जब निमाई बेहोशी से उठा, तो उसके आश्चर्यय की सीमा ना रही, क्योंकि उसका हर्निया का दर्द से पूरी तरह से ठीक हो गया था।
  • परंतु ऐसा नहीं था कि बामाखेपा से मिलने वाले सभी लोग इतने भाग्यशाली होते रहे हो। एक बार कुछ असभ्य युवकों ने बामाखेपा का मजाक उड़ाने लगे, क्योकि वह अपना भोजन आवारा कुत्तों के साथ साझा करके खा रहे थे, अचानक उन युवकों को ऐसा लगा मानो बामाखेपा ने उन्हें छू लिया हो। डर के मारे युवकों को दिखा कि जैसे बामाखेपा और उनके सारे कुत्ते भगवान के रूप परिवर्तित होकर उनके सामने खड़े हैं और वह सारे युवक छिपे हुए चमगादड़ों के रूप में बदल गए हो।
  • बामाखेपा के चिकित्सिय शक्तियों के विषय में सुनकर नागेन पांडा नामक एक पुजारी, एक मरते हुए आदमी को लेकर तारापीठ पहुंच गया। यह मरने वाला आदमी बहुत अमीर था और नागेन पांडा ने सोचा कि यदि बामाखेपा के इलाज से वह बच गया, तो नागेन पांडा के इस कृत्य पर खुश होकर उसे इनाम स्वरूप बहुत अधिक धन देगा। लेकिन नागेन पांडा की अपेक्षा के विपरीत बामाखेपा ने उस व्यक्ति के इलाज के लिए कुछ भी नहीं किया और “फट” बोला। वह व्यक्ति यह सुनते ही तुरंत मर गया। गुस्से में आकर नागेन पांडा ने बामाखेपा पर उस व्यक्ति की हत्या का आरोप लगाने लगा। बामाखेपा ने कहा “मैं इसकी मृत्यु का जिम्मेदार नहीं हूं”, यह तो माता की इच्छा थी, जो मेरे मुंह से शब्द निकले।

बामाखेपा की महासमाधि

बामाखेपा ने कुछ भी सीखा नहीं, परंतु जैसा-जैसा माता ने उन्हें करने को कहा, वह बस वैसा करते चले गए। तारापीठ के इस संत ने बहुत लंबा जीवन जिया और अपनी पवित्र उपस्थिति के माध्यम से उस स्थान और उन सभी लोगों को पवित्र किया जो भी उनके संपर्क में आए। उन्होंने 1911 में महा समाधि (अंतिम मुक्ति) में प्रवेश किया।

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