जानिये ऋषि विश्वामित्र की सिद्धियाँ और अद्भुत जीवन प्रसंग

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महर्षि विश्वामित्र प्राचीन भारत के सबसे प्रतिष्ठित ऋषियों में सबसे प्रमुख रहे हैं। उन्हें ईश्वर-तुल्य होने के साथ-साथ, गायत्री मंत्र सहित ऋग्वेद के मंडल -३ के लेखक के रूप भी में जाना जाता है। उनका जन्म राजा के रूप में हुआ पर उन्होंने अपनी अखंड तपस्या से ब्रह्मऋषि की उपाधि प्राप्त की। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि प्राचीन काल से लेकर अब तक केवल चौबीस ही ऋषि रहे हैं, जिन्होंने गायत्री मंत्र के संपूर्ण अर्थ को समझा और इसकी शक्ति का पूरा प्रयोग किया है। इसमें ऋषि विश्वामित्र को प्रथम माना जाता है और ऋषि याज्ञवल्क्य को अंतिम। ऋषि विश्वामित्र और ऋषि वशिष्ठ की प्रारम्भिक वैमनस्यता भी लोक में प्रसिद्ध है।

Table Of Contents
  1. ऋषि विश्वामित्र का 'यज्ञ के प्रसाद' द्वारा जन्म
  2. विश्वामित्र का राजा से ऋषि बनना
  3. गुरु वशिष्ठ के साथ कई बार ऋषि विश्वामित्र का टकराव
  4. मेनका तथा अन्य अप्सराओं द्वारा ऋषि विश्वामित्र को लुभाना
  5. ऋषि विश्वामित्र का अखंड तपस्या से ब्रह्मऋषि बनना
  6. ऋषि विश्वामित्र और ऋषि वशिष्ठ की मित्रता होना
  7. ऋषि विश्वामित्र द्वारा राजा त्रिशंकु के लिए अलग स्वर्ग की रचना करना
  8. ऋषि विश्वामित्र द्वारा बालक सुनहेश्पा को मन्त्र देना
  9. राजकुमार विश्वनाथ (ऋषि विश्वामित्र) और उग्रा का प्रेम प्रसंग
  10. रामायण में ऋषि विश्वामित्र का उल्लेख
  11. गायत्री मंत्र के खोजकर्ता – ऋषि विश्वामित्र
  12. महर्षि विश्वामित्र का मंदिर

ऋषि विश्वामित्र का ‘यज्ञ के प्रसाद’ द्वारा जन्म

विश्वामित्र की कहानी ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में भी वर्णित है। विश्वामित्र असल में प्राचीन भारत में एक लोध राजा थे, जिन्हें कौशिक (कुश का वंशज) भी कहा जाता था और ये अमावसु वंश के थे। विश्वामित्र मूलतः चंद्रवंशी (सोमवंशी) थे। वह एक वीर योद्धा और कुश नामक महान राजा के पौत्र थे। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के बालकांड का गद्य 51, विश्वामित्र की कहानी के साथ शुरू होता है – कुश नाम का एक राजा था (यहां “कुश” नाम को श्रीराम के पुत्र कुश के साथ भ्रमित नहीं करना चाहिए), जो भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। उन के पुत्र कुषाणभ अत्यंत शक्तिशाली और सत्यवादी थे। यह आगे चलकर गाधि के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनके पुत्र विश्वामित्र महान संत हुए, जिन्होंने पृथ्वी पर राज्य किया।

ऋषि विश्वामित्र की कहानी अन्य पुराणों में रामायण से भिन्न रूप में मिलती है। महाभारत के विष्णु पुराण और हरीवंश पुराण के अध्याय 27 में (अमावसु का वंश) विश्वामित्र के जन्म का वर्णन किया गया है। विष्णु पुराण के अनुसार कुषाणभ ने पुरुकुत्सा वंश की एक स्त्री से विवाह किया। इन्हें गाधि नाम से एक पुत्र हुआ, जिसकी एक पुत्री हुईं जिनका नाम सत्यवती (महाभारत की सत्यवती से भ्रमित न हों) रखा गया। सत्यवती का विवाह, रुचिका नामक एक बूढ़े व्यक्ति से हुआ था, जो भृगु वंश में अग्रणी थे। रुचिका की इच्छा थी, उसके पुत्र में एक अच्छे व्यक्ति के सभी गुण हों इसलिए उन्होंने सत्यवती को यज्ञ का प्रसाद (चारु) प्रदान किया, जिससे वह अपने उद्देश्य की संतान को प्राप्त कर सकें। उन्होंने सत्यवती की माता को एक दूसरा चारू प्रदान किया, क्योंकि सत्यवती की माता ने उनसे अनुरोध किया था, कि उन्हें क्षत्रिय गुणों वाला पुत्र चाहिए। परंतु सत्यवती की मां ने निजी तौर पर सत्यवती को अपने साथ अपने चारू का आदान प्रदान करने के लिए कहा। जिसका परिणाम यह हुआ कि सत्यवती की मां ने विश्वामित्र को जन्म दिया और सत्यवती ने जमदग्नि जन्म दिया। जमदग्नि आगे चलकर परशुराम के पिता बने, जो क्षत्रिय के गुणों से परिपूर्ण योद्धा थे। परशुराम ने अपने पिता का प्रतिशोध लेने के लिए पृथ्वी को 21 बार क्षत्रियों से विहीन किया था।

इस प्रकार ये सिद्ध है कि ऋषि परशुराम जन्म से ब्राह्मण तथा कर्म से क्षत्रिय थे, और ऋषि विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय और कर्म से ब्राह्मण थे.

विश्वामित्र का राजा से ऋषि बनना

महर्षि वशिष्ठ के पास एक गाय थी, जिसका नाम नंदिनी था। वह किसी भी इच्छा की पूर्ति करने में सक्षम थी। एक बार राजा कौशिक (ऋषि विश्वामित्र) ने वह गाय को देखी और उनके मन में उसे पाने की इच्छा जाग उठी। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ को उन्हें वह गाय सौंपने के लिए कहा, परंतु महर्षि वशिष्ठ ने ऐसा करने से मना कर दिया और कहा कि इस यह गाय वास्तव में देवताओं की है, उनकी नहीं। राजा कौशिक (ऋषि विश्वामित्र) महर्षि वशिष्ठ की यह बात सुनकर बहुत अधिक क्रोधित हो गए और उन्होंने अपनी पूरी सेना के साथ महर्षि वशिष्ठ के आश्रम पर आक्रमण कर दिया। हांलांकि महर्षि वशिष्ठ की तपस्या की शक्ति के कारण वह हार गए और किसी तरह वामदेव द्वारा उनकी रक्षा की गई। उन्होंने वामदेव से पूछा कि किस प्रकार महर्षि वशिष्ठ ने अकेले ही उनकी समस्त सेना को हरा दिया? वामदेव ने उन्हें बताया, कि महर्षि वशिष्ठ के पास ब्रह्मशक्ति है, जिसके कारण वह ऐसा करने में सक्षम हो सके। इसके बाद राजा कौशिक (ऋषि विश्वामित्र) के मन में महर्षि वशिष्ठ जैसे बनने की इच्छा जाग उठी। उन्होंने वामदेव के निर्देशानुसार तपस्या करना आरंभ कर दिया और वह राजा कौशिक से ऋषि विश्वामित्र बन गए।

गुरु वशिष्ठ के साथ कई बार ऋषि विश्वामित्र का टकराव

एक बार एक मुठभेड़ में ऋषि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र को सारस बनने का श्राप दे दिया। ऋषि वशिष्ठ ने उनके साथ स्वयं एक चिड़िया बनकर उनका साथ दिया। ऋषियों के बीच हुई इस हिंसक मुठभेड़ इतनी ज्यादा बढ़ गई कि भगवान ब्रह्मा को स्वयं आकर के हस्तक्षेप करना पड़ा। ऋषि वशिष्ठ ने विश्वामित्र की संपूर्ण सेना को अपनी आध्यात्मिक शक्तियों के उपयोग द्वारा नष्ट भ्रष्ट कर दिया था, जो सिर्फ उनके “ओम” बोलने की ध्वनि के साथ लेने से पूर्ण हो गया था। इसके पश्चात विश्वामित्र, भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कई वर्षों तक तपस्या करते रहे। ऋषि विश्वामित्र चाहते थे कि उन्हें आकाशीय अस्त्रों शस्त्रों का ज्ञान हो सके। इस ज्ञान को भगवान शिव से प्राप्त करने के बाद वह पुनः वशिष्ठ मुनि के आश्रम गए और वशिष्ठ मुनी और उनकी कुटिया को नष्ट करने के उद्देश्य से अपने सभी शक्तिशाली अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। वह वशिष्ठ मुनि के हजार पुत्रों को मारने में सफल रहे, किंतु ऋषि वशिष्ठ को ना मार सके। क्रोध में आकर ऋषि वशिष्ठ ने अपने ब्रह्म कमंडल से एक लकड़ी की छड़ी निकाली जिसमें ब्रह्म शक्ति विद्यमान थी। यह ब्रह्मास्त्र विश्वामित्र के सभी शक्तिशाली अस्त्रों से, यहां तक कि उनके स्वयं के ब्रह्मास्त्र से भी, ज्यादा शक्तिशाली था। तत्पश्चात ऋषि वशिष्ठ ऋषि विश्वामित्र पर गुस्से में प्रहार करने को अग्रसर हुए, किन्तु देवताओं ने ऋषि वशिष्ठ को शांत कर दिया। अंत में उन्होंने विश्वामित्र को अपमानित करके छोड़ दिया और ऋषि वशिष्ठ ने पुनः अपने मंत्रोच्चारण द्वारा अपनी कुटिया पुनर्स्थापित कर दी।

मेनका तथा अन्य अप्सराओं द्वारा ऋषि विश्वामित्र को लुभाना

मेनका का जन्म देवताओं और असुरों के द्वारा किये गए समुद्र मंथन के दौरान हुआ था। वह सबसे सुंदर अप्सराओं (खगोलीय अप्सरा) में से एक थी। निःसंदेह वह अत्यंत बुद्धिमान, सुन्दर और सहज प्रतिभा वाली थीं। मेनका की इच्छा थी कि उनका एक परिवार हो। समय के साथ ऋषि विश्वामित्र ने अपनी घोर तपस्या द्वारा कई शक्तियों को अर्जित कर लिया, जिसके कारण देवताओं के मन में भय आ गया। विश्वामित्र की शक्तियों से घबराकर देवराज इंद्र ने मेनका को स्वर्ग से धरती पर भेजा, ताकि वह ऋषि विश्वामित्र की लुभा सके और उनका ध्यान भंग कर दे। मेनका ने ऋषि विश्वामित्र को लुभाने का सफलतापूर्वक प्रयास किया और वह ऋषि विश्वामित्र का ध्यान तोड़ने में सफल भी रहीं। हालांकि यह करते समय वह वास्तविक रूप से उनके प्रेम में पड़ गई थी और उनके इस प्रेम से एक कन्या ने भी जन्म लिया, जिसका नाम शकुंतला रखा गया। इनका लालन-पालन बाद में ऋषि कण्व के आश्रम में हुआ। बाद में शकुंतला को राजा दुष्यंत से प्रेम हो गया और उन्होंने भरत नामक एक पुत्र को जन्म दिया।

बाद में विश्वामित्र ने मेनका को हमेशा के लिए खुद से अलग होने का श्राप दे दिया। हालांकि वह मेनका से बहुत अधिक प्रेम भी करते थे और यह भी जान चुके थे कि बहुत समय पहले ही मेनका ने उनके प्रति सभी कुटिल इरादों का त्याग कर दिया था।

ऋषि विश्वामित्र पर अप्सरा रंभा द्वारा भी परीक्षण करवाया गया हालांकि अप्सरा रंभा को विश्वामित्र द्वारा श्राप मिला।

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ऋषि विश्वामित्र का अखंड तपस्या से ब्रह्मऋषि बनना

रंभा को श्राप देने के पश्चात ऋषि विश्वामित्र हिमालय पर्वत की सबसे ऊंची चोटी पर जाकर 1000 वर्षों से भी अधिक समय के लिए गंभीर तपस्या करने लगे। उन्होंने खाना पीना छोड़ दिया और सांसे भी कम से कम लेने लगे। इस बार इंद्रदेव ने उनकी फिर से परीक्षा लेनी चाही और वह एक गरीब ब्राह्मण का रूप लेकर उनके पास भोजन मांगने पहुंचे, जो ऋषि विश्वामित्र ने कई सालों के उपवास के बाद, अपने खाने के लिए, थोड़े से चावल के रूप में बनाया था। ऋषि विश्वामित्र ने वह चावल तुरंत ही उस गरीब ब्राह्मण को दे दिए और पुनः अपनी तपस्या में लग गए। अंततः विश्वामित्र ने अपनी तपस्या में महारत हासिल कर ली और देवराज इंद्र उनकी तपस्या भंग करने में विफल रहे।

कई हजार सालों की इस तपस्या की यात्रा के चरम पर, ऋषि विश्वामित्र की योग शक्ति भी चरम पर पहुंच गई। इस बिंदु पर पहुंचकर भगवान ब्रह्मा ने इंद्रदेव के नेतृत्व में राजा कौशिक को “ब्रह्मऋषि” की उपाधि दी और उन्हें एक नाम दिया “विश्वामित्र” अर्थात “जो सबका मित्र हो, जिसके हृदय में असीमित करुणा हो”।

ऋषि विश्वामित्र और ऋषि वशिष्ठ की मित्रता होना

इसके बाद ऋषि विश्वामित्र, ऋषि वशिष्ठ से मिलने गए। ऐसा करने की प्रथा थी कि यदि किसी ऋषि का अभिवादन किसी समान या श्रेष्ठ व्यक्ति द्वारा हो तो वह ऋषि भी किसी ऐसे ही समकक्ष व्यक्ति का बराबरी पूर्ण अभिवादन करता है। और यदि ऋषि को किसी हीन व्यक्ति द्वारा अभिवादन किया जाए तो ऋषि उन्हें आशीर्वाद देते हैं। प्रारंभ में जब ऋषि विश्वामित्र ने ऋषि वशिष्ठ को अपने ब्रह्म ऋषि होने की बात बताई तो उनके हृदय में गर्व था। जिसके कारण ऋषि वशिष्ठ ने उन्हें आशीर्वाद दिया। अचानक ही ऋषि विश्वामित्र के दिल से सारी इच्छाएं, सारा घमंड छट गया और वह साफ हृदय के ब्रह्म ऋषि बन गए। इसके पश्चात ऋषि विश्वामित्र वहां से वापस चलने लगे, तो ऋषि वशिष्ठ ने उनके हृदय के अंदर आए इस बदलाव को महसूस किया और आगे बढ़कर ऋषि विश्वामित्र का स्वागत किया। ऋषि विश्वामित्र ने भी ऋषि वशिष्ठ से अपनी सारी शत्रुता समाप्त करते हुए उन्हें सहर्ष गले लगाया।

ऋषि विश्वामित्र द्वारा राजा त्रिशंकु के लिए अलग स्वर्ग की रचना करना

एक बार एक प्रतापी राजा, जिनका नाम त्रिशंकु था, ने अपने गुरु वशिष्ठ से अपने आपको सशरीर स्वर्ग भेजने की मांग की, तो गुरु ने उन्हें उत्तर दिया कि शरीर को स्वर्ग में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। उसके बाद राजा त्रिशंकु गुरु वशिष्ठ के सौ पुत्रों के पास गए और उनके सौ पुत्रों से उन्हें स्वर्ग भेजने की मांग की। उनके पुत्रों ने कहा कि अपने पिता द्वारा मना करने के पश्चात त्रिशंकु को उनके पास नहीं आना चाहिए था और इस वजह से उन्होंने त्रिशंकु को चांडाल बनने का श्राप दे दिया। त्रिशंकु राख का शरीर बन गया, उसके कपड़े काले और आभूषण लोहे के हो गए। वह पूरी तरह अपरिचित हो गया और उसे राज्य से बाहर कर दिया गया।

राज्य से निष्कासित होने के बाद त्रिशंकु, ऋषि विश्वामित्र के पास गया, जो उसकी मदद करने को तैयार हो गए। ऋषि विश्वामित्र ने अपने तेज और बल से एक महान अनुष्ठान का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने त्रिशंकु को स्वर्ग में स्वीकार करने के लिए देवताओं से अनुरोध किया, परंतु किसी भी देवता ने त्रिशंकु को अपनाने के लिए हामी नहीं भरी। क्रोध में आकर, ऋषि विश्वामित्र ने अपनी योग साधना की शक्ति का उपयोग करते हुए त्रिशंकु को स्वर्ग में जाने का आदेश दिया और चमत्कारिक रूप से वह स्वर्ग में पहुंचने के लिए आकाश की ओर उड़ने लगा। लेकिन तभी देवराज इंद्र ने त्रिशंकु को वापस नीचे की तरफ धक्का दे दिया।

इसके बाद और भी अधिक क्रोधित होकर ऋषि विश्वामित्र ने त्रिशंकु के लिए एक अलग ब्रह्मांड (एक और ब्रह्मा सहित) की रचना शुरू की। जब तक बृहस्पति देव द्वारा उन्हें रूकने का आदेश दिया गया, तब तक वे ब्रह्मांड की रचना पूरी कर चुके थे। हालाँकि, त्रिशंकु अभी तक अपने लिए बनाए गए त्रिशंकु स्वर्ग में पूरी तरह स्थानांतरित नहीं हो पाया था। ब्रहस्पति देव द्वारा रुकने का आदेश पाते ही त्रिशंकु आकाश में उल्टा होकर स्थिर हो गया और एक नक्षत्र में तब्दील हो गया। जिसे अब “क्रुक्स” के नाम से जाना जाता है। इस नए ब्रह्मांड की रचना की प्रक्रिया में ऋषि विश्वामित्र ने अपनी तपस्या से प्राप्त सभी तपोबल का उपयोग किया था। इसलिए त्रिशंकु प्रकरण के बाद ऋषि विश्वामित्र को ब्रह्मऋषि की स्थिति पाने और महर्षि वशिष्ठ के बराबर होने के लिए पुनः तपस्या शुरू करनी पड़ी।

ऋषि विश्वामित्र द्वारा बालक सुनहेश्पा को मन्त्र देना

तपस्या के उपक्रम के दौरान राजा कौशिक (ऋषि विश्वामित्र) ने एक बालक सुनहेश्पा की मदद की थी, जिसे उसके माता-पिता ने त्याग के रूप में हरिश्चंद्र / अंबरीष के यज्ञ में, वरुण देव को खुश करने के लिए, बेच दिया था। राजा हरिश्चंद्र अपने पुत्र रोहित का त्याग नहीं करना चाहता था, परंतु चूंकि वह वरुण देव को एक बालक के बलिदान का वचन दे चुका था, इसलिए उसने युवा सुनहेश्पा को बलिदान के तौर पर देने की बात की। भयभीत सुनहेश्पा, राजा कौशिक ( ऋषि विश्वामित्र) के चरणों में जाकर गिर जाता है और उनसे मदद की भीख मांगने लगता है।

राजा कौशिक ( ऋषि विश्वामित्र) ने सुनहेश्पा को एक गुप्त मंत्र दिया। बालक यह मंत्र गाते हुए समारोह में पहुंच जाता है, जिसके कारण देवराज इंद्र और वरुण उसे आशीर्वाद देते हैं और अंबरीष का समारोह पूरा हो जाता है।

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राजकुमार विश्वनाथ (ऋषि विश्वामित्र) और उग्रा का प्रेम प्रसंग

इस कहानी के एक अन्य संस्करण में सुनहेश्पा, ऋषि विश्वामित्र का ही खोया हुआ पुत्र बताया गया है। जब विश्वामित्र, भरत (कौशिक) के राजकुमार थे – और उनका नाम तब विश्वनाथ था, शत्रु राजा शंबर ने उनका अपहरण कर लिया था। वहां पर राजा शंबर की बेटी उग्रा को विश्वनाथ से प्रेम हो जाता है। उग्रा, राजकुमार विश्वनाथ को स्वयं से विवाह करने के लिए तैयार कर लेती हैं। विश्वनाथ के अच्छे चरित्र को देखते हुए, राजा शंबर भी इस विवाह के लिए भी सहमत हो जातें हैं। विवाह के तुरंत बाद, भरत शंबर के खिलाफ युद्ध जीत लेता है। तब उनको यह पता चलता है कि उनके राजकुमार विश्वनाथ जीवित हैं, तो उन्हें वह खुशी होती है, परंतु वे उग्रा को अपनी भावी रानी के रूप में स्वीकार नहीं करते, क्योंकि वह एक असुर कन्या होती है। उग्रा को आर्य में परिवर्तित करने के लिए, विश्वनाथ गायत्री मंत्र का जाप करते हैं, लेकिन लोग अभी भी उग्रा को स्वीकार करने से इनकार करते हैं। जल्द ही उग्रा एक पुत्र को जन्म देती है, लेकिन नाराज लोगों से पुत्र को बचाने के लिए, उस समय की सबसे बड़ी महिला संत लोपामुद्रा बच्चे को एक सुरक्षित एवं गुप्त स्थान पर भेज देती हैं। लोग उग्रा को मार देते हैं, जिसके कारण लोपामुद्रा और विश्वनाथ अत्यंत दुखी हो जाते हैं, परंतु उग्रा पुत्र बच जाता है। यह बात विश्वनाथ को पता नहीं होती, धीरे-धीरे यह बच्चा बड़ा होता है और राजा अंबरीष के समारोह की रस्म में स्वयं को बलिदान करने के लिए उपस्थित होता है।

रामायण में ऋषि विश्वामित्र का उल्लेख

ऋषि विश्वामित्र प्रभु श्री राम और उनके छोटे भाई लक्ष्मण के गुरु रहें हैं। श्रीराम, अयोध्या के राजकुमार और भगवान विष्णु के सातवें अवतार माने गए हैं। रामायण के अनुसार, विश्वामित्र ने उन्हें देवास्त्र का ज्ञान दिया और धर्म का प्रशिक्षण भी दिया। साथ ही उन्हें आकाशीय हथियार जैसे बाला, अतिबाला द्वारा शक्तिशाली राक्षसों का वध करने का मार्गदर्शन भी किया। वह ऋषि विश्वामित्र ही थे, जो प्रभु श्रीराम को राजकुमारी सीता के स्वयंवर समारोह में लेकर गए थे जहां श्री राम का विवाह राजकुमारी सीता के साथ संपन्न हुआ।

गायत्री मंत्र के खोजकर्ता – ऋषि विश्वामित्र

कहा जाता है कि ऋषि विश्वामित्र ने गायत्री मंत्र को खोजा था। यह ऋग्वेद के मंडल (3.62.10) में सूक्त छंद से प्राप्त किया गया। वैदिक साहित्य में गायत्री मंत्र को बहुत व्यापक रूप से दोहराया तथा उद्धृत किया गया है। मनुस्मृति कहती है कि गायत्री मन्त्र से बेहतर कुछ और हो ही नहीं सकता अर्थात सावित्री (गायत्री) मंत्र सर्वश्रेष्ठ है। हरिवंश पुराण और भगवत गीता में गायत्री मन्त्र के प्रभाव की बहुत प्रशंसा की गई है। यह मंत्र हिंदू धर्म में युवा पुरुषों के उपनयन संस्कार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और लंबे समय से द्विज पुरुषों द्वारा उनके दैनिक अनुष्ठान में महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में सुनाया जाता है। आधुनिक हिंदू सुधार आंदोलन के अंतर्गत इस मंत्र के अभ्यास को स्त्रियों और सभी जातियों में फैलाया गया तथा यह कहा गया कि सभी को इस मंत्र का जाप करना चाहिए और इस मंत्र का पाठ व्यापक रूप से सभी के लिए खुला है।

महर्षि विश्वामित्र का मंदिर

महर्षि विश्वामित्र का एक मंदिर भारत के अलगुंडी, तंजावुर, तमिलनाडु में है, जो श्री आभासहायशेश्वर नाम से प्रसिद्ध है। यहां महर्षि विश्वामित्र की पूजा की जाती है।

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