दस महाविद्या (4): देवी भुवनेश्वरी – महिमा एवं मंत्र

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दस महाविद्या में भुवनेश्वरी देवी का चौथा स्थान है। इन्हें आदि पराशक्ति या पार्वती भी कहते हैं जो शक्ति के सबसे पुरातन रूपों में से एक हैं। इनके पति शिव है जो त्रयंबक या भुवनेश्वर के स्वरूप में है। भुवनेश्वरी शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है भुवन और ईश्वरी इसका अर्थ है पृथ्वी की देवी या समस्त जगत की रानी। देवी भुवनेश्वरी के मंत्र पाठ से सिद्धियों के साथ साथ मुक्ति भी मिलती है।

त्रिदेव द्वारा देवी भुवनेश्वरी के प्रथम दर्शन

काल की शुरुआत में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र जगत की संरचना प्रारंभ कर रहे थे। एक उड़ता हुआ रथ उनके सामने आया और एक आवाज ने उन्हें रथ में बैठने का आदेश दिया। जैसे ही त्रिदेव रथ में बैठे यह मन की गति से उड़ने लगा और उन्हें एक अजीब से स्थान पर लेकर गया। यह स्थान असल में रत्नों का द्वीप था जिसके चारों तरफ अमृत का सागर और मनमोहक आकर्षक जंगल थे। जैसे ही त्रिदेव रथ के बाहर उतरे वह स्त्री स्वरूप में बदल गए। उन्होंने उस द्वीप का अच्छी तरह मुआयना किया वहां उन्हें एक शहर मिला। उस शहर के चारों तरफ सुरक्षा की 9 परतें थी और इस शहर की सुरक्षा उग्र स्वभाव के भैरव, क्षेत्रपाल, मातृका और दिगपाल कर रहे थे। जैसे ही वह शहर के अंदर गए, शहर का सौंदर्य और विकास देखकर मंत्रमुग्ध हो गए।आखिरकार वे शहर के अंदर स्थित मुख्य राजमहल में पहुंचे जिसका नाम चिंतामणि गृह था और जिसकी सुरक्षा योगिनीयां कर रही थी। यह शहर श्रीपुर था – देवी भुवनेश्वरी की राजधानी जो मणिद्वीप की रानी थी। जैसे ही त्रिदेव महल के अंदर घुसे, उन्हें देवी भुवनेश्वरी के दर्शन हुए।

उनकी छटा लाल रंग की थी। उनकी तीन आंखें, चार हाथ थे तथा उन्होंने लाल रंग के आभूषण पहने थे। उनके शरीर पर लाल चंदन का लेप लगा था तथा उन्होंने लाल कमल की माला पहनी थी। बाए हाथ में उन्होंने अंकुश और पास पकड़ा था तथा दाहिने हाथ से वो अभय और वरदा मुद्रा दिखा रही थी। उनका मुकुट अर्ध चंद्र रुपी मणि द्वारा सुसज्जित था।

वह त्र्यंबक भैरव की बाई गोद में बैठी थी जो श्वेत वर्ण के थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र पहने थे उनके बाल उलझे हुए थे तथा उनके सर के ऊपर भी अर्धचंद्र एवं गंगा नदी थी। उनके पांच चेहरे थे तथा हर एक चेहरे में तीन आंखें थी। उनके चार हाथ थे तथा उन्होंने त्रिशूल, फरसे लेने के साथ वरदा और अभय मुद्रा भी प्रदर्शित की हुई थी। देवी भुवनेश्वरी और त्र्यम्बक भैरव पंचप्रेत आसन पर विराजमान थे। पंचप्रेतासन वह सिंहासन है जिसमें परमशिवा गद्दी के रूप में तथा पांच पैरों के स्थान पर सदाशिव, ईश्वर, रुद्र, विष्णु और ब्रह्मा स्थापित है। इन सब की सेवा में अनेक योगिनीयां थी। इनमें से कुछ पंखा डोल रही थी, कुछ कपूर डालकर पान के पत्ते समर्पित कर रही थी, कुछ नए शीशे पकड़ी हुए थी, कुछ घी, शहद और नारियल पानी समर्पित कर रही थी, कुछ माता के बाल का श्रंगार करने के लिए तैयार थी, कुछ देवी के मनोरंजन के लिए नृत्य तथा गायन में लिप्त थी।

त्रिदेव ने वहां पर असंख्य ब्रह्मांड देखें। हर ब्रह्मांड में उनकी तरह ही त्रिदेव थे और यह सब उन्होंने माता भुवनेश्वरी के पैरों के नाखून में ही देख लिया। कुछ ब्रह्माण्ड ब्रह्मा द्वारा बनाए जा रहे थे, कुछ विष्णु द्वारा पाले जा रहे थे तथा कुछ रूद्र द्वारा संहारित किए जा रहे थे।

देवी भुवनेश्वरी द्वारा शक्तियों की उत्पत्ति

यदि त्र्यंबक का अर्थ है ब्रह्म तो माता भुवनेश्वरी ब्रह्म शक्ति हैं। इन दोनों का अस्तित्व अलग अलग नहीं है। यदि त्रयंबक आदि पुरुष है तो भुवनेश्वरी मूल प्रकृति हैं। त्र्यंबक की इच्छा शक्ति द्वारा उत्पन्न भुवनेश्वरी ने त्र्यम्बक के तीन स्वरूप बनाए – ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र। इस तरह त्रिदेव त्रयंबक के ही तीन रूप है। तत्पश्चात देवी भुवनेश्वरी ने अपनी शक्तियां त्रिदेव को प्रदान की। ब्रह्म के लिए देवी सरस्वती, विष्णु के लिए देवी लक्ष्मी ,तथा रुद्र के लिए देवी काली का निर्माण किया तथा उन्हें उनकी जगहों पर स्थापित किया।

ब्रह्मा और सरस्वती ने मिलकर एक ब्रह्मांड रूपी अंडा बनाया, रुद्र और काली ने इसे तोड़ा, जिससे पंचतत्व स्वरूप में आए। इसके बाद पंच तत्व का उपयोग कर ब्रह्मा और सरस्वती ने संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना की तथा विष्णु और लक्ष्मी ने इसके पालन पोषण का हर कार्य किया। अंत में रुद्र और काली ब्रह्मांड की समाप्ति की ताकि सरस्वती और ब्रह्मा पुनर्रचना शुरू कर सकें।

त्रिदेव में विवाद और लोकों का व्याख्यान

एक बार भगवान ब्रह्मा, विष्णु और शिव में इस बात पर वाद विवाद हो गया कि उनमें सर्वशक्तिमान कौन है। यह विवाद इतना बढ़ गया कि स्वर्ग की शांति भंग होने लगी तथा अन्य देवता चिंतित हो गए। ठीक उसी समय एक अति सुंदर देवी मध्यस्थता हेतु प्रकट हुई। वह त्रिदेव को अपने साथ अपने निवास लेकर गई। वहां देवी भुवनेश्वरी ने उन्हें बताया कि संपूर्ण ब्रह्मांड की रचयिता वह खुद ही हैं। उन्होंने त्रिदेव को बताया कि ब्रह्मांड उनके द्वारा ही रचित है तथा विनाश उपरांत उनमें ही समा आएगा। उन्होंने सभी तत्वों का निर्माण भी किया है तथा सभी देवताओं, ऋषि मुनियों तथा जीवित वस्तुओं में प्राण संचार भी किया है। उन्होंने अनेक लोकों की रचना की है जैसे सत्य लोक, जहां ब्रह्म का निवास है।

सत्यलोक सभी लोकों में सर्वश्रेष्ठ है तथा यहां के निवासी जन्म और मृत्यु के वशीभूत नहीं होते। इसके पश्चात तपलोक आता है जहां आत्मा निवास करती है। यहां के निवासियों को सत्यलोक में जाने के लिए इंतजार करना होता है तथा तप करना होता है। इसके बाद ज्ञानलोक का स्थान आता है जहां सन्यासी निवास करते हैं। इसके बाद महरलोक का स्थान होता है जहां ऋषि मुनि, सन्यासी कठिन तपस्या करते हैं। इस स्थान पर रहने वाले ऋषि-मुनियों की शक्ति देवताओं के बराबर होती है। इसके बाद आनंद लोक आता है जो वस्तुतः स्वर्ग लोक है जहां सभी देवताओं का निवास होता है। इसके पश्चात भुवर लोग आता है जहां सूर्य तथा अन्य ग्रह केंद्रित है। भुवर लोक के पश्चात भूलोक आता है जिसमें जीवन और मरण के वश में होने वाले सभी जीव जंतुओं का निवास होता है। भूलोक के बाद अटल लोक है जिसमें सभी ग्रहों की संपदा एकत्रित है। इसके बाद वितल्लोक आता है जहां सभी प्रकार के तत्व और कीमती रत्न होते हैं। इसके बाद सुतल लोक आता है जहां राक्षसों के राजा बाली का राज होता है। इसके पश्चात तलाताल लोक आता है और उसके नीचे महातल लोक आता है जिसके अंदर नागलोक होता है जहां सभी प्रकार के नाग नागिन का वास होता है। उसके नीचे असुरों और राक्षसों का निवास रसातल नामक लोक में होता है। इसके पश्चात सभी लोकों के नीचे पाताल लोक होता है जहां नागों के राजा वासुकी का निवास होता है। यह सब बताने के बाद देवी भुवनेश्वरी ने अपनी शक्तियां (सरस्वती, लक्ष्मी, काली) त्रिदेव को समर्पित की तथा त्रिदेव को यह बताया कि उनकी शक्तियां उन्हें विश्व की संरचना, पालन पोषण तथा संहार में मदद करेंगी।

देवी भुवनेश्वरी के मंदिर

देवी भुवनेश्वरी के भारतवर्ष में बहुत सारे मंदिर हैं – खासतौर पर दक्षिण भारत में श्री विद्या उपासक उनकी उपासना करते हैं:

  • नैनातिवु (मनीपल्लवं) एक शक्तिपीठ है (श्रीलंका के उत्तरी भाग में) जो भुवनेश्वरी देवी को समर्पित है।
  • देवी भुवनेश्वरी को समर्पित एक नाथ मंदिर चंदन नगर (हुगली प्रांत, पश्चिमी बंगाल) में है जहां सावन के महीने में देवी की पूजा होती है।
  • भुवनेश्वरी देवी का मंदिर तमिलनाडु के पूधूकोत्तई प्रांत में भी है।
  • पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर के अंदर भी देवी भुवनेश्वरी का मंदिर है तथा देवी सुभद्रा की उपासना देवी भुवनेश्वरी की तरह की जाती है।
  • भुवनेश्वरी देवी का एक मंदिर गुजरात के गोंडल में स्थित है जो 1946 में बनाया गया था।
  • माता भुवनेश्वरी का सबसे पुराना मंदिर उत्तरी गुजरात के गुंजा प्रांत में है।
  • महाराष्ट्र के सांगली जिले में बिलावली में कृष्णा नदी के तट पर देवी भुवनेश्वरी का मंदिर है।
  • उड़ीसा में समलेश्वरी तथा कटक चंडी मंदिर में देवी भुवनेश्वरी की अर्चना होती है।
  • केरला के कालीकट में नो चिप्रा भगवती क्षेत्रम मंदिर है जहां 900 साल पुराना मंदिर है जिसकी मुख्य देवी भुवनेश्वरी अम्मा है।
  • कामाख्या मंदिर के अंदर भुवनेश्वरी देवी का मंदिर है।
  • हिमाचल प्रदेश के कुल्लू प्रांत में देवी भुवनेश्वरी का एक मंदिर है जहां उन्हें माता भुवनेश्वरी जगन्नाथी के नाम से मानते हैं तथा वर्ष में दो बार उनके सम्मान में मेले का आयोजन होता है।

देवी भुवनेश्वरी के मंत्र

देवी भुवनेश्वरी आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करती हैं और तैत्रेय उपनिषद के अनुसार आकाश सर्वप्रथम रचनाओं में से एक है। इस उपनिषद अनुसार आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से पौधे तथा जड़ी बूटियां, पौधे तथा जड़ी बूटियों से भोजन, तथा भोजन से मनुष्य का निर्माण हुआ है। ललिता सहस्त्रनाम में देवी भुवनेश्वरी का व्याख्यान है जिसमें उन्हें इस संपूर्ण ब्रह्मांड की रानी बताया गया है। ‘ह्रीं’ बीज को माया बीज या भुवनेश्वरी बीज भी कहा गया है। इस बीज मंत्र में संरचना की अद्भुत क्षमता है तथा इसे सबसे अधिक शक्तिशाली बीज मंत्रों में से एक माना गया है क्योंकि यह बीज अपने अंदर शिव बीज, अग्नि बीज तथा कामकला बीच को सम्मिलित करता है।

देवी भुवनेश्वरी का एकाक्षरी मंत्र ‘ह्रीं’ है। देवी भुवनेश्वरी का त्र्याक्षरी मंत्र ‘ऐं ह्रीं श्रीं’ है। देवी भुवनेश्वरी की उपासना का रात्री में अधिक महत्त्व है।

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