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जानिए स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी योगानंद (जोगिन) का अद्भुत जीवन परिचय

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Table Of Contents
  1. जोगिन का बचपन एवं व्यक्तित्व
  2. श्री रामकृष्ण परमहंस से जोगिन की भेंट
  3. जोगिन के माता-पिता का उनकी आध्यात्मिक साधना में अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप
  4. जोगिन के विवाह का विपरीत परिणाम
  5. श्री रामकृष्ण द्वारा जोगिन से मिलने के की इच्छा एवं जोगिन का संकल्प
  6. श्री रामकृष्ण परमहंस द्वारा जोगिन को दिया गया विवाह संबंधित ज्ञान
  7. माता की फटकार एवं सांसारिकता के प्रति जोगिन का बढ़ता द्वेष
  8. जोगिन के अत्यंत दयालु हृदय का संक्षिप्त परिचय
  9. श्री रामकृष्ण परमहंस द्वारा जोगिन को समझाया गया शिष्य का कर्तव्य
  10. कैसे गुरु ने जोगिन को पहले ही संकेत दे दिया था अपने निधन का
  11. क्यों की जोगिन ने पवित्र माता की इतनी अधिक सेवा
  12. जब जोगिन बन गए स्वामी योगानंद और की अत्यधिक कठिन तपस्या
  13. स्वामी विवेकानंद द्वारा एक संगठन शुरू करने का प्रस्ताव और स्वामी योगानंद का विरोध
  14. मतभिन्नता के बावजूद एक दूसरे के साथ थे स्वामी योगानंद और स्वामी विवेकानंद
  15. जब स्वामी विवेकानंद अपनी भावनाओं को छिपाने के लिए सभा का त्याग कर दिया
  16. स्वामी योगानंद के विशाल हृदय का छोटा सा परिचय
  17. स्वामी योगानंद द्वारा श्री रामकृष्ण के जन्मदिन समारोह का आखिरी आयोजन
  18. स्वामी योगानंद का अद्भुत निधन एवं स्वामी विवेकानंद की भावपूर्ण टिप्पणी
  19. 'स्वामी योगानंद' एक "अनन्त रूप से परिपूर्ण" व्यक्तित्व

जिस समय श्री रामकृष्ण दक्षिणेश्वर के मंदिर-उद्यान में भक्तों-बूढ़ों और युवाओं को आकर्षित कर रहे थे, उस समय एक पड़ोसी परिवार से संबंधित किशोरावस्था की आयु का एक युवक लगातार कुछ दिनों से रानी रसमनी के बगीचे में श्री रामकृष्ण परमहंस के दर्शन के लिए आ रहा था। यह लड़का अपनी उम्र से छोटा और दिखने में दिव्य प्रकृति का था। इसका स्वभाव धार्मिक और देवी मां के प्रति इसकी साधना में शुद्धता की किरण साफ तौर पर देखी जा सकती थी जो उसके चेहरे से साफ परिलक्षित होती थी। जब इस लड़के ने श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में सुना तो इसके मन में संत को देखने की इच्छा जागी। लेकिन स्वभाव से शर्मीले होने के कारण वे श्री रामकृष्ण परमहंस के विषय में ना तो पता लगा सके और ना उनसे मिल सके यही कारण था कि वे बार-बार दक्षिणेश्वर जाने लगे। एक दिन इन्होंने मंदिर के परिसर के एक कमरे में भारी भीड़ देखी और सोचा कि शायद यही वह जगह है जहाँ श्री रामकृष्ण ठहरे हुए होंगे। वह पास तक तो गए लेकिन बाहर ही खड़े हो गए। इसी समय श्री रामकृष्ण ने एक व्यक्ति से उन सभी लोगों को कमरे के भीतर लाने के लिए कहा जो बाहर खड़े थे। जब वह व्यक्ति बाहर गया तो उसने बाहर इन्हीं को खड़ा पाया और वह इन्हें लेकर अंदर आ गया। जब श्री राम कृष्ण की लोगों के साथ सभा समाप्त हुई तो वह इस बालक के पास आए और उन्होंने बहुत ही प्यार से इससे पूछताछ की। बालक ने अपना नाम जोगिंद्र नाथ चौधरी बताया। श्री रामकृष्ण यह जानकर प्रसन्न हुए कि लड़का उनके पुराने परिचित नबीन चंद्र चौधरी का पुत्र था। जोगिन, दक्षिणेश्वर के चौधरी परिवार संबंध रखते थे। हालांकि उनके पूर्वज बहुत कुलीन और समृद्ध थे, लेकिन उनके माता-पिता समय के खेल के कारण गरीब हो गए थे। उनके पिता एक बहुत ही रूढ़िवादी ब्राह्मण थे और कई धर्म उत्सवों में इनके देखा जा सकता था। श्री रामकृष्ण अपनी साधना के दौरान कभी-कभी इन उत्सवों में शामिल होते थे, और इस प्रकार वह इनके परिवार को जानते थे।

जोगिन का बचपन एवं व्यक्तित्व

जोगिन का जन्म वर्ष 1861 में हुआ था। वे बचपन से ही चिंतनशील स्वभाव के थे। अपने साथियों के साथ खेलते समय भी, वह अचानक से चिंतित हो जाते थे, खेलना बंद कर देते और नीले आसमान की ओर देखते रहते। उन्हें ऐसा लगता है जैसे कि उनका इस धरती से कोई संबंध नहीं है अपितु उनका अस्तित्व कहीं किसी और स्थान से है। वह अपनी आदतों में सरल थे और कभी भी किसी विलासिता के प्रति लालायित नहीं रहे। वे स्वभाव से थोड़े संयमी और शांत थे। उनके इसी व्यक्तित्व के कारण उनके मित्र भी उनसे उतनी स्वतंत्रता के साथ व्यवहार नहीं कर पाते थे। परंतु उन्हें सभी से बहुत प्रेम और सम्मान प्राप्त होता था। उन्होंने बहुत छोटी सी उम्र में पवित्र धागे को धारण कर लिया था जिसके पश्चात उनका ज्यादातर समय पूजा-पाठ और ध्यान में बीतता था‌। कभी-कभी अपने कुल देवता की पूजा करते समय इतने तल्लीन हो जाते की आस-पास की सुध-बुध भी वह बैठते थे।

श्री रामकृष्ण परमहंस से जोगिन की भेंट

जोगिन की उम्र लगभग 16-17 वर्ष की थी, जब वे पहली बार श्री रामकृष्ण परमहंस से मिले। उस समय जोगिन एक प्रवेश परीक्षा के लिए अध्ययन कर रहे थे श्री रामकृष्ण ने पहली मुलाकात में ही जोगिन की आध्यात्मिक क्षमता को पहचान लिया और उन्हें सलाह दी कि वह समय-समय पर उनसे मिलते रहा करें। जोगिन, उस गर्मजोशी और सौहार्द से मंत्रमुग्ध हो गए थे, जिसके साथ श्री रामकृष्ण परमहंस ने उनका स्वागत किया गया था; और इसी कारण उन्हें जब भी मौका मिलता है वह श्री रामकृष्ण परमहंस के पास मिलने जरूर जाया करते थे। दक्षिणेश्वर के कुछ लोगों द्वारा श्री रामकृष्ण को “सनकी ब्राह्मण” के रूप में जाना जाता था। उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि श्री रामकृष्ण के व्यवहार में “सनक” उनकी ईश्वर-प्राप्ति के कारण थी। रूढ़िवादी वर्ग, श्री रामकृष्ण को इस संबंध में संदेह की दृष्टि से देखता था कि ‘क्या श्री रामकृष्ण परमहंस ने उनकी अपेक्षा जाति के नियमों का कड़ाई से पालन किया है जो कलकत्ता के लोग उनके आसपास आते थे।’ उस समय कोलकाता एक ऐसा शहर था जहां उन दिनों कई लोगों ने खुले तौर पर हिंदू धर्म के रीति-रिवाजों और परंपराओं की अवहेलना की थी। यही कारण था कि जोगिन, श्री रामकृष्ण के पास स्वतंत्र रूप से आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे क्योंकि उन्हें डर था कि अगर उनके माता-पिता को इसके बारे में पता चलेगा तो उनके माता-पिता को इस बात से आपत्ति होगी। इसलिए वह चुपके से श्री रामकृष्ण के दर्शन करने आने लगे। परंतु जल्द ही यह बात सबको पता चल गई कि जोगिन श्री रामकृष्ण के प्रति कितने अधिक समर्पित हैं और अपना अधिकांश समय उन्हीं के साथ बिताते हैं। जल्द ही जोगिन के मित्रों और साथियों ने इस बात पर उनको ताने देना और उनका मजाक बनाना शुरू कर दिया। परंतु जोगिन अपने स्वभाव के अनुरूप बड़े ही शांत भाव से इन सभी बातों को सुन कर मुस्कुराते हुए अनसुना कर देते थे।

जोगिन के माता-पिता का उनकी आध्यात्मिक साधना में अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप

जोगिन के माता-पिता पढ़ाई के प्रति उनकी उदासीनता और रामकृष्ण के प्रति उनके लगाव को देखकर चिंतित होने लगे। परंतु वे सीधे तौर पर हस्तक्षेप करना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्हें लगा ऐसा करने का भी कोई फायदा नहीं होगा। इधर जोगिन में सोचा कि पढ़ाई जारी रखना उनके किसी काम का नहीं है क्योंकि उनके मन में किसी भी प्रकार की सांसारिक महत्वकांक्षी के लिए कोई स्थान नहीं बचा था। परंतु अपने माता-पिता को आर्थिक सहायता देने के लिए जो उस समय अत्यंत मुश्किल परिस्थितियों में थे वह काम की तलाश के लिए कानपुर चले गए। कुछ समय तक उन्होंने काम तलाश करने के लिए प्रयत्न किया परंतु उन्हें किसी प्रकार का कोई रोजगार प्राप्त नहीं हुआ इसीलिए उन्होंने वहां बचा अपना खाली समय ध्यान और आध्यात्मिक साधना में समर्पित कर दिया। धीरे धीरे उन्होंने किसी से भी बात करना बिल्कुल कम कर दिया। जितना हो सकता था वह शांत रहते और अपनी ही विचारों में खोए रहते थे। दिन पर दिन उनका व्यवहार इसी दिशा की ओर बढ़ता जा रहा था। जोगिन के चाचा, जिनके साथ वह कानपुर में रहते थे, उनके इस व्यवहार के कारण वह जोगिन के आने वाले भविष्य के विषय में सोच कर अत्यंत चिंतित हो उठे और उन्होंने जोगिन के पिता को एक पत्र लिखते हुए, उपाय सुझाया की जोगिन का विवाह करवा देना ही इस समय एकमात्र उपाय है क्योंकि ऐसा करने से हो सकता है कि जोगिन के मन में सांसारिक वस्तुओं के प्रति रुचि पैदा हो जाए। जोगिन को इस विषय में कुछ नहीं पता था। उन्हें सूचना मिली कि घर में कोई बीमार है और यह सोचकर कि यह उनकी माँ हो सकती है, जिनके प्रति वे बहुत समर्पित थे, वे दक्षिणेश्वर की ओर दौड़ पड़े। लेकिन जब वे घर पहुंचे तो उन्हें यह देख बहुत निराशा हुई कि उन्हें दी गई जानकारी गलत थी और यह उन्हें घर वापस बुलाने का एक बहाना था घर पर तो उनका विवाह तय किया जा चुका था। वह इस विवाह के पूरी तरह विरोद्ध में थे क्योंकि वह तो किसी से भी विवाह करना नहीं चाहते थे। उनका मानना था कि विवाह करने से उनके धार्मिक जीवन में बाधा उत्पन्न होगी और उनकी इच्छा त्याग का जीवन व्यतीत करने की थी। जिससे कि वह अपना सारा समय और ऊर्जा ईश्वर प्राप्ति के लिए समर्पित कर सकें। परंतु जोगिन अपने माता पिता को मना नहीं कर सके क्योंकि वह अपनी माता से बहुत अधिक प्रेम करते थे।

जोगिन के विवाह का विपरीत परिणाम

उनके माता पिता ने सोचा था कि विवाह करने से जोगिन वापस से सांसारिक चीजों की ओर हो मुड़ जाएंगे लेकिन परिणाम बिल्कुल विपरीत हुआ। विवाह करने के पश्चात जोगिन के मस्तिष्क पर इतना विपरीत प्रभाव पड़ा कि वे चिड़चिड़ा हो गए, उन्हें रात दिन यही चिंता सताने लगी कि उनका ब्रह्मचारी जीवन जीने का संकल्प टूट गया। जिस श्री रामकृष्ण के पास जाना उन्हें इतना अधिक प्रिय था, अब वे, उन्हें अपनी शक्ल भी नहीं दिखाना चाहते थे क्योंकि जोगिन को लगता था कि रामकृष्ण को जोगिन के आध्यात्मिक भविष्य से बहुत उम्मीदें थी और जब उन्हें पता चलेगा कि जोगिन ने विवाह कर लिया तो वे उनसे बेहद निराश हो जाएंगे।

श्री रामकृष्ण द्वारा जोगिन से मिलने के की इच्छा एवं जोगिन का संकल्प

जोगिन के विवाह की एक खबर धीरे-धीरे फैलते हुए श्री रामकृष्ण तक पहुंच ही गई। श्री रामकृष्ण ने बार-बार जोगिन से मिलने के की इच्छा को सूचना के द्वारा उन तक पहुंचाया। लेकिन जोगिन उनसे मिलने को तैयार ही नहीं हुए। अंततः श्री रामकृष्ण ने जोगिन के एक मित्र से कहा कि “कुछ समय पहले जोगिन ने मुझसे कुछ पैसे उधार लिए थे और उन्होंने ना तो वह पैसे वापस लौटाए और ना ही कोई हिसाब दिया।” जब यह बात जोगिन को पता चली तो उनकी भावनाएं पर बुरी तरह आहत हो गईं। जोगिन को याद आया कि कानपुर जाने से पहले श्री रामकृष्ण उन्हें खरीदारी करने के लिए छोटी सी धनराशि दी थी। जिसमें से काफी वह पहले ही लौटा चुके थे परंतु थोड़ी सी राशि लौटाना शेष रह गया था। जिसे वह लौट आना चाहते थे पर विवाह के कारण वे श्री राम कृष्ण से मिलने में शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे और इसी कारण वह उनसे मिलने नहीं जा सकें। हालांकि, श्री रामकृष्ण की इस टिप्पणी से, वह इतने दुखी हुए कि उन्होंने पैसे वापस करने का संकल्प लिया और सोचा कि वह जल्दी से जा कर यह पैसे श्री रामकृष्ण को दें देंगे और यह उनके इस जीवन की श्री रामकृष्ण के साथ अंतिम मुलाकात होगी।

श्री रामकृष्ण परमहंस द्वारा जोगिन को दिया गया विवाह संबंधित ज्ञान

श्री रामकृष्ण परमहंस अपनी खाट पर बैठे थे, तभी जोगिन उनसे मिलने आए। जोगिन को देखते ही वह अत्यधिक भावुक हो उन्हें गले लगाने के लिए दौड़े और उनसे मिलते ही सबसे पहली बात जो उन्होंने उनसे कही: “यदि आपने विवाह कर लिया तो इसमें क्या हानि है ? विवाह आपके आध्यात्मिक जीवन में कभी बाधा नहीं बनेगा। अगर ईश्वर की कृपा है तो सैकड़ों विवाह भी किसी की आध्यात्मिक प्रगति में कभी बाधा नहीं डाल सकते। किसी दिन अपनी पत्नी को लेकर यहाँ आओ। मैं समझाने की कोशिश करूंगा कि वह आपके विचारों को समझें और यह विवाह जिसे आप बाधा समझते हैं, आपके आध्यात्मिक जीवन के लिए मददगार साबित होगा।”
जोगिन ने जैसे ही श्री राम कृष्ण के मुख से इन वचनों को सुना उनके हृदय में छाया अंधेरा साफ हो गया। जोगिन के हृदय से एक बहुत बड़ा बोझ हल्का हो गया हो श्री राम कृष्ण परमहंस के इन शब्दों ने उनके हृदय में फैले अंधेरे को हटा दिया और उसमें नई आशा और उत्साह को भर दिया। इसके बाद जैसे ही उन्होंने उस बची हुई धनराशि को लौटाने की बात कही तो श्री रामकृष्ण के मुख को देखते ही जोगिन को समझने में जरा भी देर न लगी कि यह मात्र उन (जोगिन) को उनके (श्री रामकष्ण) के पास बुलाने का एक बहाना था। इस घटना के पश्चात तो जोगिन के मन में श्री रामकृष्ण के लिए प्यार और श्रद्धा और अधिक बढ़ गई और समय के साथ वह फिर से बार-बार दक्षिणेश्वर की यात्रा के लिए आने लगे।

माता की फटकार एवं सांसारिकता के प्रति जोगिन का बढ़ता द्वेष

विवाह होने के पश्चात भी जोगिन पहले की भांति ही सांसारिकता के प्रति उदासीन ही थे। जब भी उनके माता-पिता उन्हें ऐसे रूप में देखते तो उन्हें यह सोच कर निराशा होने लगती कि क्या सोचकर उन्होंने अपने पुत्र का विवाह किया था और क्या परिणाम हुआ। आखिरकार एक दिन जोगिन की माँ का सब्र टूट गया और उन्होंने जोगिन के बढ़ते वैराग्य को देखकर उनको फटकार लगाई कि क्या इसी दिन के लिए उनकी मां ने उनका विवाह करवाया था। जोगिन ने जब अपनी मां के मुख से यह सुना तो उन्हें बहुत बड़ा धक्का लगा क्योंकि उन्होंने तो यह विवाह केवल अपनी माता के कहने पर किया था। इस घटना के बाद जोगिन के मन में सांसारिक जीवन के प्रति द्वेष और अधिक बढ़ने लगा। उन्होंने सोचा कि उनके जीवन में मात्र श्री राम कृष्ण ही एक ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्होंने उन्हें सदैव निस्वार्थ रूप से प्रेम किया है। इसके पश्चात वे श्री राम कृष्ण के साथ और अधिक समय बिताने लग गए, साथ ही श्री रामकृष्ण भी जोगिन के प्रशिक्षण पर और अधिक ध्यान देने लगे।

जोगिन के अत्यंत दयालु हृदय का संक्षिप्त परिचय

जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि जोगिन अत्यंत दयालु हृदय थे, उनके लिए तो किसी कीट पतंगे को हानि पहुंचाना भी अत्यंत कठिन कार्य रहा होगा। लेकिन कई बार जरूरत से अधिक विनम्रता गुण होने के बजाय परेशानी का कारण बन जाती है। जब श्री रामकृष्ण ने जोगिन के व्यक्तित्व में इस दयालुता का अनुभव किया तो वे उन्हें अपने घर लेकर आए। श्री रामकृष्ण ने देखा कि उनके कपड़ों के बंडल में कई तिलचट्टे छुपे बैठे हैं। उन्होंने जोगिन से कहा कि वह इन कपड़ों को कमरे से बाहर ले जाएं और तिलचट्टों को मार डालें। जोगिन ने इस आदेश में से पहले आदेश का पालन तो किया, परंतु वह तिलचट्टों को मार ना सके। उन्हें उन तिलचट्टों को मारने से पहले ही उन पर दया आ गई उन्होंने सिर्फ उन्हें बाहर की तरफ फेंक दिया तथा यह सोचा कि श्री रामकृष्ण शायद इतनी विस्तार से पूछताछ नहीं करेंगे। लेकिन उनका यह अंदाजा गलत निकला क्योंकि श्री रामकृष्ण ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने तिलचट्टा को मार दिया। उन्होंने सच बोला और मना कर दिया जिस पर उन्हें श्री रामकृष्ण से थोड़ी फटकार भी पड़ी।

श्री रामकृष्ण परमहंस द्वारा जोगिन को समझाया गया शिष्य का कर्तव्य

इसी तरह की एक और घटना हुई। एक बार जोगिन नाव द्वारा कलकत्ता से दक्षिणेश्वर जा रहे थे। नाव पर अन्य यात्री भी सवार थे। उनमें से एक ने श्री रामकृष्ण परमहंस की आलोचना करना शुरू कर दिया। उनमें से एक ने श्री रामकृष्ण को पाखंडी बोला तो किसी और ने कुछ और जब जोगिन ने इन आलोचना को सुना तो वह बहुत आहत हुए, लेकिन उन्होंने विरोध में एक भी शब्द नहीं बोला। जोगिन ने सोचा कि “श्री रामकृष्ण परमहंस को किसी भी तरह के बचाव की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह इन मूर्खों की किसी भी प्रकार की आलोचना की पहुंच से कहीं ऊपर हैं। दक्षिणेश्वर आने के बाद जब उन्होंने श्री रामकृष्ण को उस घटनाओं के विषय में बताया और सोचा कि श्री रामकृष्ण उनके द्वारा यात्रियों का विरोध न करने में उनकी अच्छाई को स्वीकार करेंगे। लेकिन श्रीरामकृष्ण ने ठीक इसके विपरीत किया। श्री रामकृष्ण ने कहा, “एक शिष्य को कभी भी बिना विरोध के अपने गुरु के खिलाफ की गई आलोचना नहीं सुननी चाहिए। अगर वह विरोध नहीं कर सकते तो उन्हें तुरंत स्थान से दूर चले जाना चाहिए।”

कैसे गुरु ने जोगिन को पहले ही संकेत दे दिया था अपने निधन का

श्री रामकृष्ण की गहन देखरेख में जोगिन आध्यात्मिक रूप से विकसित होने लगे। समय बीता और जब श्री रामकृष्ण बीमार पड़ गए और श्यामपुकुर और कोसीपोर में उनका इलाज चल रहा था, उस समय वे उन शिष्यों में से एक थे जिन्होंने अपने प्रिय गुरु की जरूरतों और आराम को पूरा करने के लिए दिन-रात मेहनत की। गुरु की सेवा करने का यह समय बहुत सारे शिष्यों के लिए अत्यधिक तनाव भरा रहा, परंतु जोगिन इस तनाव को पूरी तरह से आत्मसात करते हुए अपने गुरु के प्रति सबसे समर्पित और निडर शिष्य के रूप में निकल कर सामने आए। श्री रामकृष्ण की तबीयत दिन पर दिन बदतर होती जा रही थी। किसी भी शिष्य के द्वारा की गई अच्छी से अच्छी देखभाल भी उनकी बढ़ती हुई बीमारी की गति को धीमा नहीं कर पा रही थी। एक दिन श्री रामकृष्ण ने जोगिन को अपने पास बुलाया और उन्हें बंगाली पंचांग का एक निश्चित भाग पढ़ने को कहा। जोगिन ने गुरु का आदेश मानकर उस भाग को पढ़ना शुरू किया। वह निश्चित तिथियों के बारे में पढ़ रहे थे जिन्हें गुरु ने कहा था। तभी गुरु ने उन्हें विशेष तिथि पर आकर रुकने के लिए कहा‌। यह वह तारीख थी जिस दिन श्री रामकृष्ण का निधन हुआ था। श्री रामकृष्ण की महासमाधि ने उनके सभी शिष्यों को गहरी निराशा में डाल दिया।

क्यों की जोगिन ने पवित्र माता की इतनी अधिक सेवा

पवित्र माता वृंदावन गईं और लगभग दिन-रात ध्यान में लीन रहीं। उनके साथ जोगिन और एक अन्य शिष्य लाटू भी उपस्थित थे। इस समय जोगिन ने भी कठोर तपस्या की। वृंदावन में एक वर्ष तक रहने के बाद, पवित्र माता बंगाल लौट आई और बेलूर मठ के वर्तमान स्थल के पास गंगा तट पर एक घर में रहीं। वहां भी वह के साथ उनकी देखरेख में थे वास्तव में पवित्र माता के प्रति की गई उनकी सेवा भाव अत्यंत अद्भुत थी देवी माता का ध्यान रखने के लिए उन्होंने अपने सभी व्यक्तिगत विचारों को छोड़ सिर्फ देवी माता की तरफ अपने ध्यान को केंद्रित किया। उन्होंने पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ देवी माता की सेवा की क्योंकि उन्हें देवी माता में अपने गुरु की छवि का भान हो रहा था।

जब जोगिन बन गए स्वामी योगानंद और की अत्यधिक कठिन तपस्या

समय बीता 1891 में, जोगिन जो अब स्वामी योगानंद बन गए थे, बनारस चले गए। वहाँ उन्होंने कठिन तपस्या करने में अपने दिन बिताए। वह आध्यात्मिक साधनाओं में लीन एक एकान्त उद्यान-घर में रहा करते थे। ऐसा कहा जाता है कि इस अवधि के दौरान वह भोजन करने के लिए भी खर्च किए जाने वाले समय से नाराज हो जाते थे। वह एक दिन अपने भोजन अरथ रोटी के कुछ टुकड़ों को भीख माँग कर लाते और अगले तीन या चार दिनों के लिए पानी में भिगोए हुए ये रोटी के टुकड़े उनके पूरे भोजन का निर्माण करते थे। इस दौरान बनारस में बहुत बड़ा दंगा हुआ, लेकिन इतने भयानक दंगों के पश्चात भी दोनों पक्षों के दंगाइयों में से किसी ने भी उन्हें जरा सा भी परेशान नहीं किया। वह बहुत अधिक कठिन तपस्या करके अपना जीवन बिता रहे थे। जिसका सीधा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ने लगा और धीरे-धीरे करके उनका स्वास्थ्य बिगड़ना शुरू हो गया। इसके पश्चात स्वामी योगानंद पुनः कभी भी स्वस्थ नहीं हो पाए। लेकिन जिस इंसान ने अपने मस्तिष्क में भगवान को बसा लिया हो, उसके शरीर के स्वस्थ होने ना होने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने अपने आंतरिक संसार में सर्वोच्च आनंद पा लिया था इसलिए शारीरिक बीमारी ने उनके मन की शांति को भंग नहीं किया। बनारस से वे बारानागोर के मठ में लौट आए। वह अभी भी बीमार चल रहे थे। लेकिन उनके उज्ज्वल, मुस्कुराते हुए चेहरे के कारण उनकी बीमारी के विषय में जरा भी पता नहीं चल रहा था। जिस समय वह पूरे मन से अपने शिष्यों को ज्ञान के विषय में समझा रहे थे। उस समय कोई सोच भी नहीं सकता था कि स्वामी योगानंद शारीरिक रूप से इतने अधिक परेशान हैं। जब पवित्र माता कोलकाता आईं तो स्वामी योगानंद एक बार पुनः उनके परिचायक बन गए। लगभग 1 वर्ष की अवधि के लिए पवित्र माता की सेवा में उन्होंने अपना जीवन लगाया और उनके प्रति समर्पित सेवा प्रस्तुत की। उसके बाद वे मुख्य रूप से कलकत्ता में बलराम बोस के घर पर रहने लगे। इस समय तक वह पेट की बीमारी से पूरी तरह से पीड़ित हो चुके थे। परंतु इतनी अधिक तबीयत खराब होने के पश्चात भी उनकी मिलनसारिता इतनी अधिक थी कि जो कोई भी उनके संपर्क में आता, वह उनसे मंत्रमुग्ध हो जाता। वे सभी मिलने वालों के साथ घर जैसा व्यवहार करते कुछ युवकों ने तो उनसे मिलने के पश्चात श्री रामकृष्ण के आदेशों को मानने और भिक्षु बनने का फैसला तक ले लिया था जो बाद में भिक्षु बन गए।

स्वामी विवेकानंद द्वारा एक संगठन शुरू करने का प्रस्ताव और स्वामी योगानंद का विरोध

स्वामी योगानंद ने सबसे पहले बड़े पैमाने पर श्री रामकृष्ण की जयंती के सार्वजनिक समारोह के उत्सव का आयोजन किया। यह दक्षिणेश्वर में किया गया। अनेकों मुश्किलों के बावजूद भी इस उत्सव के सफलता का पूरा श्रेय स्वामी योगानंद के प्रभावों को दिया गया जिसके कारण युवा पीढ़ी के कई लोग इस में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। स्वामी योगानंद की इस आयोजन क्षमता का प्रमाण तब भी मिला जब 1897 में स्वामी विवेकानंद अमेरिका से भारत लौट कर आए और उनका भव्य स्वागत किया गया। भारत लौटने के बाद, जब स्वामी विवेकानंद ने अपने भाई-शिष्यों के लिए एक संगठन शुरू करने का प्रस्ताव रखा, तो स्वामी योगानंद विरोध करने वाले पहले व्यक्ति बने।

मतभिन्नता के बावजूद एक दूसरे के साथ थे स्वामी योगानंद और स्वामी विवेकानंद

स्वामी योगानंद का तर्क था कि श्री रामकृष्ण परमहंस चाहते थे कि उनके सभी शिष्य अपना समय और ऊर्जा विशेष रुप से आध्यात्मिक अभ्यास के लिए समर्पित करें। परंतु विवेकानंद की शिक्षाओं को सीखने के दौरान उन शिष्यों के उस समय की जा सकने वाली आध्यात्मिक अभ्यास की हानि होती। स्वामी विवेकानंद ने यह जानकार उनकी भावनाओं को समझते हुए कहा कि वह (अर्थात् स्वयं) उस आध्यात्मिक विशाल श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं में सुधार करने के लिए बहुत महत्वहीन हैं, कि यदि श्री रामकृष्ण चाहें तो वे मुट्ठी भर धूल से सैकड़ों विवेकानंद बना सकते हैं, उनका मुख्य कार्य श्री राम कृष्ण की इच्छाओं को पूरा करना है और स्वामी विवेकानंद के लिए श्री रामकृष्ण परमहंस के स्वप्न को पूरा करने के अलावा अन्य कोई इच्छा नहीं। श्री रामकृष्ण के प्रति स्वामी विवेकानंद के इस तरह क विश्वास ने वहां मौजूद सभी लोगों को स्तब्ध कर दिया, और स्वामी योगानंद भी उनकी इस बात से सहमत हो गए। जब रामकृष्ण मिशन सोसाइटी वास्तव में शुरू हुई तो स्वामी योगानंद को इसके पदाधिकारियों में से एक बनाया गया। यह एकमात्र अवसर नहीं था जब स्वामी योगानंद ने स्वामी विवेकानंद जैसे महान नेता को चुनौती देकर अपना व्यक्तिगत निर्णय और एक महान आलोचनात्मक क्षमता की शक्ति दिखाई थी, हालांकि इन दोनों के मध्य एक दूसरे के लिए प्रेम भी बहुत गहरा था। हालांकि दोनों एक दूसरे से भिन्न थे परंतु फिर भी दोनों एक दूसरे के साथ थे।

जब स्वामी विवेकानंद अपनी भावनाओं को छिपाने के लिए सभा का त्याग कर दिया

स्वामी विवेकानंद द्वारा एक संगठन शुरू करने के संदर्भ में ऊपर उल्लिखित घटना के दो साल बाद, पुनः कुछ ऐसा हुआ। स्वामी विवेकानंद पर उनके गुरु-भाई द्वारा अपने गुरु के विचारों का प्रचार नहीं करने का आरोप लगाया गया। क्योंकि श्री रामकृष्ण ने भक्ति और ईश्वर की प्राप्ति के लिए साधनाओं के अभ्यास पर जोर दिया, जबकि स्वामी विवेकानंद ने उन्हें लगातार काम करने, उपदेश देने और गरीबों और बीमारों की सेवा करने के लिए प्रेरित किया करते थे – यह कार्य मनुष्य के मस्तिष्क को सांसारिकता की ओर लेकर जाती हैं। यहां भी स्वामी योगानंद ने चर्चा शुरू की। पहले तो दोनों पक्षों में हल्के-फुल्के अंदाज में चर्चा शुरू हुई। लेकिन धीरे-धीरे स्वामी विवेकानंद गंभीर हो गए, और आगे चलकर उन्हें भावनाओं से ग्रसित हो, गरीबों के प्रति अपने प्रेम और गुरु के प्रति उनकी श्रद्धा के साथ स्पष्ट रूप से संघर्ष करते हुए पाया गया। उनकी आँखों में आँसू भर आए और वह पूरी तरह काँपने लगे। स्वामी विवेकानंद अपनी भावनाओं को छिपाने के लिए तुरंत वहां से चले गए। लेकिन माहौल इतना तनावपूर्ण था कि स्वामी के जाने के बाद भी किसी ने चुप्पी तोड़ने की हिम्मत नहीं की। कुछ मिनट बाद कुछ गुरुभाई स्वामी विवेकानंद के घर गए और उन्हें ध्यान मुद्रा में बैठे पाया, उनका पूरा शरीर कड़ा हो गया था और उनकी आधी बंद आंखों से आंसू बह रहे थे। स्वामी के बैठने के कमरे में अपने प्रतीक्षारत मित्रों के पास लौटने में लगभग एक घंटे का समय था, और जब उन्होंने बात करना शुरू किया, तो सभी ने पाया कि स्वामी विवेकानंद का गुरु के प्रति प्रेम सतही दृश्य से जितना देखा जा सकता था, उससे कहीं अधिक गहरा था। लेकिन स्वामी विवेकानंद को उस विषय पर बात करने की अनुमति नहीं दी गई। स्वामी योगानंद और अन्य लोग उनके विचारों को भटकाने के लिए उन्हें कमरे से बाहर ले गए।

स्वामी योगानंद के विशाल हृदय का छोटा सा परिचय

स्वामी योगानंद फिर से पवित्र माता के परिचारक बन गए और कलकत्ता में उनके साथ रहे। लेकिन चूंकि इस समय तक स्वामी योगानंद शारीरिक रूप से अत्यंत कमजोर हो चुके थे, इसीलिए वह अपने साथ एक युवा भिक्षु को सहायक के रूप में साथ लेकर गए। जब पवित्र माता कलकत्ता में थीं, तो स्वाभाविक रूप से कई महिलाएं उनके पास आती थीं। स्थिति को देखते हुए, स्वामी विवेकानंद ने एक बार स्वामी योगानंद को एक युवा ब्रह्मचारी को अपने सहायक के रूप में रखने के लिए कार्य में लिया: यदि इस कार्य से स्वामी विवेकानंद का ब्रह्मचर्य जीवन खतरे में पड़ गया तो कौन जिम्मेदार होगा? “मैं,” स्वामी योगानंद ने तुरंत ही यह उत्तर दिया, “मैं उनके (स्वामी विवेकानंद के) लिए अपना सब कुछ बलिदान करने के लिए तैयार हूं।” स्वामी योगानंद किन शब्दों में इतनी गंभीरता और सच्चाई थी कि जिसने भी सुना वह स्वामी योगानंद की विशाल हृदय की प्रशंसा करते ना थका।

स्वामी योगानंद द्वारा श्री रामकृष्ण के जन्मदिन समारोह का आखिरी आयोजन

1898 में स्वामी योगानंद ने बेलूर के पास एक स्थान पर श्री रामकृष्ण के जन्मदिन समारोह का आयोजन किया, क्योंकि कुछ विशिष्ट कारणों की वजह से दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण के जन्मदिन के समारोह का आयोजन करना संभव नहीं था। यह श्री रामकृष्ण का अंतिम जन्मदिन समारोह था, जिसमें स्वामी योगानंद शामिल हुए थे। क्योंकि, अगले वर्ष — 1899 में, मार्च 28 को, उनका निधन हो गया। स्वामी योगानंद श्री रामकृष्ण के मठवासी शिष्यों में से पहले थे, जिन्होंने महासमाधि में प्रवेश किया।

स्वामी योगानंद का अद्भुत निधन एवं स्वामी विवेकानंद की भावपूर्ण टिप्पणी

उनका निधन अद्भुत था। मृत्यु से पहले उनके शब्द थे: “मेरा ज्ञान और भक्ति इतनी बढ़ गई है कि मैं उसे व्यक्त नहीं कर सकता।” एक वृद्ध संन्यासी, जो उस समय स्वामी योगानंद के पवित्र बिस्तर पास थे, उनका कहना था कि उन्होंने अचानक ही शारीरिक अवस्था से परे एक ऐसी उच्च अवस्था के प्रवाह को महसूस किया जिसमें आत्मा, चेतना की एक उच्चतर, स्वतंत्र और श्रेष्ठ अवस्था में जाती महसूस हो रही थी। स्वामी योगानंद के निधन से स्वामी विवेकानंद बहुत आहत हुए और उन्होंने बहुत ही भावपूर्ण टिप्पणी की, “यह अंत की शुरुआत है।” बाह्य रूप से स्वामी योगानन्द का प्रथम चरण असामान्य था। यह कहना या इस विषय में कोई टिप्पणी देना अत्यंत मुश्किल है जिसके माध्यम से कोई भी व्यक्ति स्वामी योगानंद के उस व्यक्तित्व को देख सकें। मात्र वे लोग जो उनके साथ थे, वे ही उनकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता की झलक देख सकते थे। उस समय मठ के युवा सदस्यों में से एक ने उनके संबंध में लिखा था: “वह इतने महान संत थे कि सबसे कम उम्र में वे रामकृष्ण के आदेश से संबंधित मिशन में शामिल होने वाले सदस्य थे।”

‘स्वामी योगानंद’ एक “अनन्त रूप से परिपूर्ण” व्यक्तित्व

स्वामी योगानंद को श्री रामकृष्ण संप्रदाय के सभी सामान्य और मठवासी शिष्यों से बहुत प्यार और सम्मान मिला। वह उन लोगों में से एक थे जिन्हें श्री रामकृष्ण ने “अनन्त रूप से परिपूर्ण” के रूप में देखा – “उन आत्माओं में से एक जो कभी बंधन में नहीं रही, लेकिन मानवता को ईश्वर की ओर ले जाने के लिए हमारी इस दुनिया में आती हैं।” स्वामी योगानंद का निधन हुए चार दशक से अधिक समय हो गया है, श्री रामकृष्ण मिशन के कई युवा भिक्षुओं ने उन्हें कभी देखा भी नहीं, लेकिन आज भी उन महान स्वामी की पवित्र स्मृति सभी के लिए एक सर्वोच्च प्रेरणा है। वे कितनी भक्ति से उनका नाम लेते हैं, और कितनी उत्सुकता से उनके जीवन की एक छोटी सी घटना भी सुनते हैं! किस प्रकार स्वामी योगानंद के शांत जीवन ने लोगों के दिलों में इतना गहरा और स्थाई स्थान बना लिया, यह सोचने लायक है। नमन है ऐसी महान आत्मा ‘स्वामी योगानंद’ को।

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