मुंबई में टिफ़िन सर्विस की शुरुआत १८९२ में हुई जब बहुत सारे ब्रिटिश और पारसी लोगों को अपने ऑफिस और अन्य काम करने की जगहों पर लंच की ज़रूरत महसूस हुई.
सबसे पहले डब्बेवाले व्यक्ति का नाम था ‘महादेव भावाजी’. इन्होने सबसे पहले एक अंग्रेज (ब्रिटिश व्यक्ति) को दोपहर के खाने के लिए डिब्बा सप्लाई करना शुरू किया और धीरे धीरे इस काम ने बड़ा रूप ले लिया.
दिन भर में लगभग ५००० डिब्बावाले करीब करीब 3.5 लाख से भी अधिक मुंबई वासियों को घर का बना खाना डब्बों में सप्लाई करते हैं. ये लोग बाइसिकल, लोकल ट्रेन और पैदल सफ़र करते हैं ताकि हर किसी को समय से स्वादिष्ट और साफसुथरा खाना मिल सके. जब यह सर्विस शुरू हुई थी तब मुश्किल से १०० सदस्य थे.
ज़्यादातर डिब्बावाले अधिक पढ़े लिखे नहीं होते और औसतन आठवीं कक्षा तक पढ़े होते हैं. पर हर डिब्बे में लिखे हुए कोड (संख्या और अल्फाबेट का कॉम्बिनेशन) में पारंगत होते हैं ताकि हर डब्बा बिलकुल सही समय पर और सही जगह पहुंचे.
देखा गया है कि एक डब्बा खाना बनाने वाले से लेकर ग्राहक (खाना खाने वाले) तक पहुँचने में 6 हाथों से होकर गुज़रता है.
हर डिब्बेवाले की कमाई एक बराबर होती है. यह इस बात पर निर्भर नहीं करता कि कौन सा डिब्बेवाला कितने लोगों को डिब्बा पहुंचता है, उसका कितना अनुभव है वगैरा.
डब्बावाला ट्रस्ट में कोई डिब्बेवाला नौकर या मालिक नहीं है. हर एक डिब्बेवाले का बराबर का हिस्सा (शेयर) होता है.
डब्बेवालों की सर्विस कभी बंद नहीं होती चाहे कितना ही खराब मौसम क्यों न हो. इन्हें ‘सिक्स सिग्मा’ की रेटिंग मिली है जिसका कॉर्पोरेट जगत में अर्थ है कि हर ६० लाख आदान प्रदान में गलती की आशंका सिर्फ 1 बार. यह बहुत अविश्वनीय, पर बिलकुल सच तथ्य है.
डब्बावाले ये बताते हैं कि १२५ वर्ष के इतिहास में उनसे हर 1 करोड़ ६० लाख आदान प्रदान में 1 गलती होती है.
डब्बावालों ने सबसे पहली बार हड़ताल २०११ में लगातार १२० साल काम करने के बाद की. यह हड़ताल अन्ना हजारे (प्रसिद्ध समाज सुधारक) के समर्थन में की गयी और हड़ताल के दिन मुंबई में पारसी नव वर्ष होने की वजह से छुट्टी भी थी.
डब्बावाले दिन में लगभग ९ घंटे काम करके लगभग महीने में १२००० रूपए कमाते हैं. ये दिन में २० मिनट का ब्रेक (अवकाश) लेते हैं.
दुनिया की सबसे मशहूर कूरियर सर्विस ‘फ़ेडेक्स’ डब्बेवालों की प्रशंसक है और उनके काम करने के तरीकों को तथा अचूक सर्विस को सराहती है.
डब्बावालों के मैनेजमेंट की पूरे विश्व में प्रशंसा है. आई आई एम और हार्वर्ड बिज़नस स्कूल जैसे प्रतिष्ठित संस्थान डब्बावालों पर रिसर्च कर चुके हैं और उनकी केस स्टडी अपने पाठ्यक्रम में शामिल कर चुके हैं.
जब प्रिंस चार्ल्स भारत में २००३ में आये तो उन्होंने डिब्बेवालों के साथ ‘चर्च गेट स्टेशन’ में समय बिताया. डिब्बेवाले इसके लिए २० मिनट का समय निकाल पाए ताकि किसी ग्राहक को डिब्बा देने में विलंब न हो.
२००५ में जब प्रिंस चार्ल्स की शादी हुई तो उनके द्वारा बुलाये गए तीन भारतीय मेहमानों में 2 डिब्बेवाले थे (1) रघुनाथ मेडगे (डब्बावाला एसोसिएशन के अध्यक्ष), (2) स्वपम मोरे (डिब्बावाला ट्रस्ट के अध्यक्ष). डब्बेवालों ने पैसे इकठ्ठा कर के प्रिंस चार्ल्स और उनकी दुल्हन ‘कैमिला पार्कर’ को एक पगड़ी और कोल्हापुरी साड़ी उपहार में दी.
डब्बावाले लगभग २०० टीम्स में काम करते हैं. कर एक टीम (गुट) अपने आप में स्वतंत्र है और इसकी निगरानी सबसे बुज़ुर्ग डब्बावाला करता है.
डब्बेवालों के ऊपर बहुत साड़ी डाक्यूमेंट्री फिल्म्स बन चुकी हैं और इनके प्रिंट मीडिया (मैगज़ीन, अखबार) में भी खूब कवर किया गया है, जैसे फोर्ब्स, इकोनॉमिस्ट, WSJ, NYT इत्यादि
डिब्बों का सही पिक अप और डिलीवरी हो इसके लिए कोड में रंग का इस्तेमाल भी होता है.
२०१३ की बॉलीवुड फिल्म ‘लंचबॉक्स’ में यह दिखाया गया है कि एक डब्बे की गलत डिलीवरी से एक रिटायर होने वाले अकाउंटेंट और एक हाउसवाइफ में प्यार हो जाता है. इस फिल्म की बहुत प्रशंसा हुई थी.
सलमान रश्दी के विवादित नावेल ‘सैटेनिक वर्सेज’ में मुख्य पात्र का नाम है ‘गिब्रील फ़रिश्ता’. वो एक डिब्बावाले के घर में इस्माइल नजमुद्दीन नाम से पैदा हुआ था. वो दस साल की उम्र में पूरी मुंबई में अपने पिता के साथ डिब्बे सप्लाई करता था.
माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनी ने विज्ञापन देने के लिए डिब्बेवालों की मदद ली है. उन्होंने विज्ञापन के पर्चे बांटने के लिए डिब्बेवालों की सर्विस ली. कुछ समय ये पर्चे बांटने के बाद डिब्बेवालों ने पाया कि ऐसा करने से वो समय पर अपने डिब्बे नहीं डिलीवर कर पाएंगे और उन्होंने पर्चे बांटने रोक दिए.
२००४ में डिब्बेवालों ने रेडियो मिर्ची को 4 दिन के लिए मोर्निंग शो प्रमोट करने में मदद की.
२००५ में वर्जिन अटलान्टिक एयरलाइन्स के अध्यक्ष ‘रिचर्ड ब्रान्सन’ डिब्बेवालों से मुंबई में मिले. वो उस समय मुंबई से लन्दन की हवाई यात्रा की घोषणा करने भारत आये थे.
२००६ में कोका कोला ने ‘संतरे के रस (ऑरेंज जूस) का फ्री सैंपल ग्राहकों को देने के लिए डिब्बेवालों की मदद ली.